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"धूप / विनोद निगम" के अवतरणों में अंतर
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घाटियों में रितु सुखाने लगी है | घाटियों में रितु सुखाने लगी है | ||
− | मेघ | + | मेघ धोए वस्त्र अनगिन रंग के |
− | आ | + | आ गए दिन, धूप के सत्संग के |
− | पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा | + | पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा दिए हैं |
− | लौटकर जाती घटाओं | + | लौटकर जाती घटाओं ने । |
− | पेड़, फिर | + | पेड़, फिर पढ़ने लगे हैं, धूप के अख़़बार |
फुरसत से दिशाओं में | फुरसत से दिशाओं में | ||
निकल फूलों के नशीले बार से | निकल फूलों के नशीले बार से | ||
लड़खड़ाती है हवा | लड़खड़ाती है हवा | ||
− | पाँव दो पड़ते नहीं हैं ढंग | + | पाँव दो पड़ते नहीं हैं ढंग से । |
− | आ | + | आ गए दिन, धूप के सत्संग के |
बँध न पाई निर्झरों की बाँह, उफनाई नदी | बँध न पाई निर्झरों की बाँह, उफनाई नदी | ||
− | तटों से मुँह जोड़ बतियाने लगी | + | तटों से मुँह जोड़ बतियाने लगी है । |
निकल कर जंगल की भुजाओं से, एक आदिम गंध | निकल कर जंगल की भुजाओं से, एक आदिम गंध | ||
− | + | आँगन की तरफ आने लगी है । | |
आँख में आकाश के चुभने लगे हैं | आँख में आकाश के चुभने लगे हैं | ||
− | दृश्य शीतल नेह देह प्रसंग के | + | दृश्य शीतल नेह देह प्रसंग के । |
− | आ | + | आ गए दिन, धूप के सत्संग के |
− | + | ||
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08:47, 29 जून 2010 के समय का अवतरण
घाटियों में रितु सुखाने लगी है
मेघ धोए वस्त्र अनगिन रंग के
आ गए दिन, धूप के सत्संग के
पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा दिए हैं
लौटकर जाती घटाओं ने ।
पेड़, फिर पढ़ने लगे हैं, धूप के अख़़बार
फुरसत से दिशाओं में
निकल फूलों के नशीले बार से
लड़खड़ाती है हवा
पाँव दो पड़ते नहीं हैं ढंग से ।
आ गए दिन, धूप के सत्संग के
बँध न पाई निर्झरों की बाँह, उफनाई नदी
तटों से मुँह जोड़ बतियाने लगी है ।
निकल कर जंगल की भुजाओं से, एक आदिम गंध
आँगन की तरफ आने लगी है ।
आँख में आकाश के चुभने लगे हैं
दृश्य शीतल नेह देह प्रसंग के ।
आ गए दिन, धूप के सत्संग के