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निराकार सत्य / मनोज श्रीवास्तव
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08:26, 3 अगस्त 2010
झांक रहा हूं
स्मृत्यायन से
--
एक सुनहले गांव की संध्या
--
,
मदमाती और इठलाती
और नहलाती
शुभ्र तृष्णा जल से
स्याह हुए मन को
,
जो सुप्त हुआ है
हताशा में
,
जिसका अंतहीन व्योम
सिकुड़ गया है
बिंदु-सरिस बुलबुले में
--
फूट कर बनने के लिए
एक निराकार सत्य.
Dr. Manoj Srivastav
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