भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जागृति / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ''' जागृति ''' …)
 
छो (जागृति/ मनोज श्रीवास्तव का नाम बदलकर जागृति / मनोज श्रीवास्तव कर दिया गया है)
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
गली-कूचों में उन्मत्त
 
गली-कूचों में उन्मत्त
 
नाच रही है जागृति,
 
नाच रही है जागृति,
चिपक रहे हैं लोग उससे
+
चिपक रहे हैं लोग उससे,
बटोर रहे हैं  
+
बटोर रहे हैं--
 
अक्षुन्ण रतिसुख
 
अक्षुन्ण रतिसुख
 
उसके पारसी छुअन से,
 
उसके पारसी छुअन से,
पंक्ति 38: पंक्ति 38:
  
 
बेशक! बखूबी जागृति  
 
बेशक! बखूबी जागृति  
हो रही है परिभाषित  
+
होती है परिभाषित  
 
उनके सनकी परेडों से तब
 
उनके सनकी परेडों से तब
 
वे ज्यादा सक्रिय होते हैं जब  
 
वे ज्यादा सक्रिय होते हैं जब  
 
इत्र-द्रव्य लेपित प्राणियों पर,
 
इत्र-द्रव्य लेपित प्राणियों पर,
ठठाकर हंसते हैं
+
ठठाकर हंसते हैं--
 
साहित्य-गोष्ठियों पर  
 
साहित्य-गोष्ठियों पर  
 
अंगरेजीदार  जुबान में
 
अंगरेजीदार  जुबान में
 
इम्पोर्टिड-सी  
 
इम्पोर्टिड-सी  
 
विचित्र मादाओं से.
 
विचित्र मादाओं से.

18:51, 5 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

जागृति

गली-कूचों में उन्मत्त
नाच रही है जागृति,
चिपक रहे हैं लोग उससे,
बटोर रहे हैं--
अक्षुन्ण रतिसुख
उसके पारसी छुअन से,
चाह रही हैं औरतें
चिरयौवन,
हो रहे हैं युवा
अति-रोमांचित,
उतार-फेंक रहे हैं
दकियानूसी वस्त्र,
अपने नंगे जिस्म हर पल
सेंक रहे हैं
परिवर्तन की भट्ठी पर,
पार उतार रहे हैं
नित नए अनुभवों के सागर,
थिरका रहे हैं
उन्मादी एडियाँ,
मटका रहे हैं
स्त्रैण नितम्ब--
क्लबों से रनिवासों तक,
दौड़ा रहे हैं
चौंधियाती कारें--
चिपकाए हुए कानों से
मोबाइल
और संवेदी अंगों से
विविध प्रेमिकाएं

बेशक! बखूबी जागृति
होती है परिभाषित
उनके सनकी परेडों से तब
वे ज्यादा सक्रिय होते हैं जब
इत्र-द्रव्य लेपित प्राणियों पर,
ठठाकर हंसते हैं--
साहित्य-गोष्ठियों पर
अंगरेजीदार जुबान में
इम्पोर्टिड-सी
विचित्र मादाओं से.