"आरण्यक / परमानंद श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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20:22, 20 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण
एक दिन हम खो जाएँगे
छिप जाएँगे दुनिया से
रहने लगेंगे
अदृश्य कोटर में
पेड़ में गजमुख
आसमान की पीठ पर चन्द्रमा
डालियाँ सूखी छितराई आसपास
सभी पूछेंगे
छिपने का राज
हम एक दूसरे को देखेंगे और
कुछ भी कहने से पहले
मुस्कराएँगे
फिर भी कुछ भी बताना हमें
निरर्थक लगेगा
एक दिन हम छोड़ जाएँगे
यह घर ये दीवारें या आँगन
यह छत
यह किताबों का गट्ठर
काग़ज़ों का अम्बार बेतरतीब
बेसंभाल
फिर हम खोजने नहीं आएँगे
इनमें दबी हुई चिट्ठियाँ
अख़बारों की कतरनें
प्रियजनों की पदचाप
अपने हुनर की गुमनाम परछाईयाँ
कैसी दबी हुई सिसकी निकलती है
जब हमें मिल जाता है इसे कबाड़ में
मित्र का गुपचुप संकेत
कोई अकेला शब्द
कूट भाषा में प्रेम
खेल के रहस्यमय इशारे
कोई फ़ोन नंबर
जो काम आता रहा हो बुरे दिनों में
एक दिन हम छिप जाएँगे
चन्द्रमा की परिधि के आसपास
चन्द्रमा दिखेगा मानसरोवर-सा
हंस तैर रहे होंगे
बत्तखें कर रही होंगी कल्लोल
हमारे वजूद से बेख़बर
एक साथ कई नीलकंठ सगुन मनाते
चुप बैठे होंगे
नहाई रोशनाई में
फिर हमें अचानक याद आएगा
नहीं की हमने कोई वसीयत समय रहते
नहीं किया कोई बँटवारा
घर-द्वार
हाट-दुकान का
थोड़ा पछतावा होगा थोड़ा दिलासा
कि दुनिया सिखा देती है
हमारी संततियों को
दुनिया से निबटना
एक दिन असफलताएँ चुपके से
आकर बता जाएँगी
एक जन्म का वृत्तांत
कि कैसे दीमकों ने जगह बना ली
शरीर के भीतर
सफाचट कर गईं अलमारियाँ बहीखाते
बढ़ा-चढ़ाकर हमारा दुःख हमारी भूलें
बयाँ करेंगी असफलताएँ
जिनसे भागकर हम आ छिपे यहाँ
सुनसान जगहों में
हम अब झुकेंगे नहीं उनके आगे
उन्हें अनसुना कर
कहीं और खिसका जाएँगे
कहीं और जा छिपेंगे
कृतिका नक्षत्र बनकर
कि कोई पहचाने तो पहचाने
नहीं तो ख़ुश रहे मदमाते ऐश्वर्य में
यह उजाड़ जैसा भी हो
है तो हमारा ही चुना हुआ
हमारी हिक़मत की एक नई सृष्टि
उजाड़ में उज्ज्वल
रिश्ते टूटते हैं
तो हर बार नए-नए
बन ही तो जाते हैं ।