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16:26, 8 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
अहं का सूरज
अनपहचाने दु:ख के
उतप्त पहाड़:
गल कर कब बहेगा
रौशनी का एक दरिया
फूटेगा कब
राग वह
तम की पर्तों को जो तिरा ले जाएगा
हठीली आग
कब तक दहकेगी
... होठों की सच्चाई बनकर
प्रतिमा खण्डित हो तो हो;भीतर ही भीतर
मेरा ’वह’ दरके तो दरके