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"होली / भारतेंदु हरिश्चंद्र" के अवतरणों में अंतर
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कैसी होरी खिलाई। | कैसी होरी खिलाई। | ||
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पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥ | पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥ | ||
− | + | :::: तबौ नहिं हबस बुझाई। | |
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई। | भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई। | ||
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥ | टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥ | ||
− | + | :::: तुम्हें कैसर दोहाई। | |
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई। | कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई। | ||
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥ | आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥ | ||
− | + | :::: तुन्हें कछु लाज न आई। | |
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(भारतेन्दु जी की रचना ‘मुशायरा’ से) | (भारतेन्दु जी की रचना ‘मुशायरा’ से) | ||
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12:01, 18 मार्च 2011 के समय का अवतरण
कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥
तुन्हें कछु लाज न आई।
(भारतेन्दु जी की रचना ‘मुशायरा’ से)