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"बसंत होली / भारतेंदु हरिश्चंद्र" के अवतरणों में अंतर

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(नया पृष्ठ: <poem> तेरी अँगिया में चोर बसैं गोरी। इन चोरन मेरो सरबस लूट्यौ मन लीन…)
 
 
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तेरी अँगिया में चोर बसैं गोरी।
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इन चोरन मेरो सरबस लूट्यौ मन लीनौ जोरा-जोरी।
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|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र
छोड़ि दे ईकि बंद चोलिया पकरै चोर हम अपनौ री।
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‘हरीचंद’ इन दोउन मेरी नाहक कीनी चित चोरी री।
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जोर भयो तन काम को आयो प्रकट बसंत ।
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बाढ़यो तन में अति बिरह भो सब सुख को अंत ।।1।।
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चैन मिटायो नारि को मैन सैन निज साज ।
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याद परी सुख देन की रैन कठिन भई आज ।।2।।
  
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परम सुहावन से भए सबै बिरिछ बन बाग ।
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तृबिध पवन लहरत चलत दहकावत उर आग ।।3।।
  
देखो बहियाँ मुरक मेरी ऐसी करी बरजोरी।
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कोहल अरु पपिहा गगन रटि रटि खायो प्रान ।
औचक आय धरी पाछे तें लोकलाज सब छोरी।
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सोवन निसि नहिं देत है तलपत होत बिहान ।।4।।
छीन झपट चटपट मोरी गागर मलि दीनी मुख रोरी।
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नहिं मानत कछु बात हमारी कंचुकि को बँद खोरी।
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एई रस सदा रसि को रहिओ ‘हरीचंद’ यह जोरी।  
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है न सरन तृभुवन कहूँ कहु बिरहिन कित जाय ।
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साथी दुख को जगत में कोऊ नहीं लखाय ।।5।।
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रखे पथिक तुम कित विलम बेग आइ सुख देहु ।
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हम तुम-बिन ब्याकुल भई धाइ भुवन भरि लेहु ।।6।।
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मारत मैन मरोरि कै दाहत हैं रितुराज ।
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रहि न सकत बिन मिलौ कित गहरत बिन काज ।।7।।
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गमन कियो मोहि छोड़ि कै प्रान-पियारे हाय ।
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दरकत छतिया नाह बिन कीजै कौन उपाय ।।8।।
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हा पिय प्यारे प्रानपति प्राननाथ पिय हाय ।
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मूरति मोहन मैन के दूर बसे कित जाय ।।9।।
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रहत सदा रोवत परी फिर फिर लेत उसास ।
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खरी जरी बिनु नाथ के मरी दरस के प्यास ।।10।।
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चूमि चूमि धीरज धरत तुव भूषन अरु चित्र ।
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तिनहीं को गर लाइकै सोइ रहत निज मित्र ।।11।।
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यार तुम्हारे बिनु कुसुम भए बिष-बुझे बान ।
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चौदिसि टेसू फूलि कै दाहत हैं मम प्रान ।।12।।
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परी सेज सफरी सरिस करवट लै पछतात ।
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टप टप टपकत नैन जल मुरि मुरि पछरा खात ।।13।।
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निसि कारी साँपिन भई डसत उलटि फिरि जात ।
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पटकि पटकि पाटी करन रोइ रोइ अकुलात ।।14।।
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टरै न छाती सौं दुसह दुख नहिं आयौ कंत ।
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गमन कियो केहि देस कों बीती हाय बसंत ।।15।।
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वारों तन मन आपुनों दुहुँ कर लेहुँ बलाय ।
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रति-रंजन ‘हरिचंद’ पिय जो मोहि देहु मिलाय ।।16।।
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(सन् 1874 को ‘हरिश्चन्द्र मैगज़ीन’ में प्रकाशित)
 
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18:39, 28 मार्च 2011 के समय का अवतरण

 
जोर भयो तन काम को आयो प्रकट बसंत ।
बाढ़यो तन में अति बिरह भो सब सुख को अंत ।।1।।
 
चैन मिटायो नारि को मैन सैन निज साज ।
याद परी सुख देन की रैन कठिन भई आज ।।2।।

परम सुहावन से भए सबै बिरिछ बन बाग ।
तृबिध पवन लहरत चलत दहकावत उर आग ।।3।।

कोहल अरु पपिहा गगन रटि रटि खायो प्रान ।
सोवन निसि नहिं देत है तलपत होत बिहान ।।4।।

है न सरन तृभुवन कहूँ कहु बिरहिन कित जाय ।
साथी दुख को जगत में कोऊ नहीं लखाय ।।5।।

रखे पथिक तुम कित विलम बेग आइ सुख देहु ।
हम तुम-बिन ब्याकुल भई धाइ भुवन भरि लेहु ।।6।।

मारत मैन मरोरि कै दाहत हैं रितुराज ।
रहि न सकत बिन मिलौ कित गहरत बिन काज ।।7।।

गमन कियो मोहि छोड़ि कै प्रान-पियारे हाय ।
दरकत छतिया नाह बिन कीजै कौन उपाय ।।8।।

हा पिय प्यारे प्रानपति प्राननाथ पिय हाय ।
मूरति मोहन मैन के दूर बसे कित जाय ।।9।।

रहत सदा रोवत परी फिर फिर लेत उसास ।
खरी जरी बिनु नाथ के मरी दरस के प्यास ।।10।।

चूमि चूमि धीरज धरत तुव भूषन अरु चित्र ।
तिनहीं को गर लाइकै सोइ रहत निज मित्र ।।11।।

यार तुम्हारे बिनु कुसुम भए बिष-बुझे बान ।
चौदिसि टेसू फूलि कै दाहत हैं मम प्रान ।।12।।

परी सेज सफरी सरिस करवट लै पछतात ।
टप टप टपकत नैन जल मुरि मुरि पछरा खात ।।13।।

निसि कारी साँपिन भई डसत उलटि फिरि जात ।
पटकि पटकि पाटी करन रोइ रोइ अकुलात ।।14।।

टरै न छाती सौं दुसह दुख नहिं आयौ कंत ।
गमन कियो केहि देस कों बीती हाय बसंत ।।15।।

वारों तन मन आपुनों दुहुँ कर लेहुँ बलाय ।
रति-रंजन ‘हरिचंद’ पिय जो मोहि देहु मिलाय ।।16।।

(सन् 1874 को ‘हरिश्चन्द्र मैगज़ीन’ में प्रकाशित)