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"वार्ता:नवीन जोशी 'नवेंदु'" के अवतरणों में अंतर

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हाथ-पैर
+
==  गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘ ==
  
शरीर में जान से अधिक
+
कुमांऊनी जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘ के काव्य में हमें तत्कालीन पहाडी़ समाज के जीवन से जुडे़ विविध पक्षों के दर्शन होते हैं। उत्तराखंड (कुमाऊंनी) के आदि कवियों में एक.
जरूरी हो गई है
+
जीवन परिचय : गौरी दत्त पंत "गौर्दा" (1872-1939),
गाड़ियों के पहियों में हवा!
+
उनकी हवा निकल गई तो
+
समझो मनुष्य की जिन्दगी ही रुक गई।
+
  
पहले सभी काम-धंधे होते थे हाथ-पैरों से
+
प्रकाशित पुस्तक:  श्री चारुचंद्र पांडे द्वारा संपादित ‘गौर्दा का काव्यदर्शन,’ देशभक्त प्रेस, अल्मोड़ा, 1965.)
खेती-बाड़ी में पैदा किया जाता था अनाज
+
गाय-बच्छियों को पाल-पोशकर मिलता था दूध-घी
+
जंगल से लाते थे लकड़ियां ईंधन को
+
नमक के अतिरिक्त
+
सब कुछ हाथ-पांव ही पैदा करते थे।
+
  
आज अनाज पैदा होता है-बनिये की दुकान पर
+
जंगल,महिलाओं की दशा,समाज सुधार से लेकर स्थानीय प्रतिरोध और राष्ट्रीय आन्दोलनों तक सभी विषयों पर ‘गौर्दा‘ ने अपनी लेखनी चलाई।‘गौर्दा‘बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। एक कुशल वैद्य के साथ साथ वे गायक, संगीतज्ञ व राम लीला के भी अच्छे कलाकार थे। एक सच्चे समाज सेवी के रुप में वे पाखण्ड,छूआछूत व पाश्चात्य संस्कृति की नकल को हमेशा चुनौती देते रहते थे।
सब्जी मण्डी में
+
और दूध देती हैं थैलियां।
+
  
गाड़ी, गैस, बिजली, पानी, टेलीफोन, कम्प्यूटर के
+
1.इसे छोड़ कहां जाएंगें हम
हाथों में आज हमारे हाथ-पैर
+
ये रुक गऐ
+
फूल जाते हैं हमारे हाथ-पैर
+
आगे न जाने क्या-क्या बनेंगे हमारे हाथ-पैर
+
जिनके बिना हम
+
हाथ-पैर होते हुऐ भी
+
लूले लंगड़े हो जाऐंगे।
+
  
 +
कुमाऊं हमारा है, हम कुमाऊं के हैं, यहीं हमारी सब खेती बाड़ी है.
 +
तराई, भाबर, वन-वृक्ष, पवनचक्कियां, नदियां, पहाड़, पहाड़ियां
 +
सब हमारी हैं. यहीं हम पैदा हुए, यहीं रहेंगे,
 +
यहीं हमारी नाड़ियां छूटेंगी. यही तो हमारा पितृगृह है,
 +
इसे छोड़ कहां जाएंगें हम. फिर फिर यहीं जन्म लेंगे.
 +
ये थाती हमे प्यारी है. बद्री केदार धाम भी यहीं हैं, कैसी कैसी पुष्प वाटिकाएं हैं,
 +
पांचों प्रयाग और उत्तरकाशी सब हमारे सामने है.
 +
सबसे बड़ा पर्वत हिमालय, जिसके पीछे कैलास है,
 +
यहीं स्थित है. हमारे यहां दही, दूध, घी की बहार रहती थी,
 +
बोरे के बोरे अनाज भरा धरा रहता था, हम ऊंचे में रहे, ऊंचे ही थे.
  
मूल कुमाउनी कविता `हात खुट´
+
हम कोई भी अनाड़ी नहीं थे. पनघट, गोचर सब अपने थे,
 +
उनमें कांटेदार तार नहीं लगा था. इमारती लकड़ी, ईंधन चीड़ की नोकदार सूखी पत्तियां,
 +
मशाल के लिए ज्वलनशील चीड़ की
 +
लकड़ी या छिलके हम वनों से ले आते थे.
 +
घरों में खेत के आगे अखरोट, दाड़िम, नींबू, नारंगी के फल लदे रहते थे.
 +
घसियारे और ग्वाले घर घर में भैंसे, गायें, बकरियां पालते थे.
  
आंग में ज्यान है ज्यादे
+
(कुमाऊं का अभिप्राय यहां कुमाऊं कमिश्नरी से है, जिसमें तब समस्त उत्तराखंड शामिल था. कवि कविता में कुमाऊं का व्यापक अर्थ में प्रयोग कर रहा है.)
जरूरी हैगे
+
गा्ड़िक घ्वीरों में हा्व!
+
उनरि सांस मुजि ग्येई....
+
समझो मैंसेकि ज्यूनि`ई थमि गे।
+
आज मैंसा्क हात-खुट जै गा्ड़िक घ्वीर बंड़ि ग्येईं।
+
  
पैली सब काम धंध हुंछी हात-खुटोंल
+
मूल कुमाउनी कविता : कां जूंला यैकन छाड़ी
खेति-बाड़ि में पैद करी जांछी अनाज
+
गोरु-बा्छ सैन्ति मिलछी दूद-घ्यू
+
बंण बै ल्यूंछी लाका्ड़,
+
नूंण बका्य
+
सब पैद करछी हात-खुटै।
+
  
आज अनाज पैद हूं-बंणियैकि दुकान में
+
हमरो कुमाऊं, हम छौं कुमइयां, हमरीछ सब खेती बाड़ी
साग मण्डि में,
+
तराई भाबर वण बोट घट गाड़, हमरा पहाड़ पहाड़ी
दूद दीं थैलि।
+
यांई भयां हम यांई रूंला यांई छुटलिन नाड़ी
 +
पितर कुड़ीछ यांई हमारी, कां जूंला यैकन छाड़ी
 +
यांई जनम फिरि फिरि ल्यूंला यो थाती हमन लाड़ी
 +
बद्री केदारै धामलै येछन, कसि कसि छन फुलवाड़ी
 +
पांच प्रयाग उत्तर काशी, सब छन हमरा अध्याड़ी
 +
सब है ठूलो हिमाचल यां छ, कैलास जैका पिछाड़ी
 +
रूंछिया दै दूद घ्यू भरी ठेका, नाज कुथल भरी ठाड़ी
 +
ऊंचा में रई ऊंचा छियां हम, नी छियां क्वे लै अनाड़ी
 +
पनघट गोचर सब छिया आपुण, तार लागी नै पिछाड़ी
 +
दार पिरूल पतेल लाकड़ो, ल्यूछियां छिलुकन फाड़ी
 +
अखोड़ दाड़िम निमुवां नारिंग, फल रूंछिबाड़ा अघ्याड़ी
 +
गोर भैंस बाकरा घर घर सितुकै, पाल छियां ग्वाला घसारी.
  
  
गाड़ि, गैस, बिजुलि, पांणि, टेलिफून, कम्प्यूटरा्क
+
2.गले का हार वंदे मातरम
हात में छन हमा्र हात-खुट
+
यं रुकि ग्या्या
+
फुलि जानीं हात-खुट
+
अघिल जांणि कि-कि बणांल हात-खुट
+
जना्र बिना हम
+
छन हात-खुटै
+
लुली जूंल।
+
  
== हाथ-पैर ==
+
15 अगस्त के मौके पर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान  ‘गौर्दा‘ द्वारा लिखी गयी कविता का हिंदी भावानुवाद:
  
 +
अंग्रेजी हुकूमत की यह सरकार हमारे बन्देमातरम को कभी भी नहीं छीन सकती है। यह बन्देमातरम तो हम गरीबों के गले का हार है। हम तो वही कर रहे हैं जो इस वक्त पर हमें करना चाहिए। आज सारा संसार बन्देमातरम का उद्घोष कर रहा है। दुर्जनों (अंग्रेजी हुकूमत )का मन उस समय जल कर भस्म हो जाता है जब उनके कान में बन्देमातरम की झंकार पड़ जाती है। देशभक्तो !तुम जेल में चक्की पीसते और भूख से मरते समय पर भी इसी बन्देमातरम को प्यार करना।मौत के मुहाने पर खडे़ देशभक्त कह रहे हैं बन्देमातरम की तलवार इनकी छाती में घोंप देंगे। देशभक्तों की नाड़ी देखकर वैद्य भी अब सिर हिलाकर कहने लगे हैं कि इन्हें बन्देमातरम की बीमारी जकड़ चुकी है। इन देशभक्तों के लिये तो यह बन्देमातरम, होली ,दिवाली व ईद के त्यौहार से भी सौ गुना ज्यादा प्यारा हो गया है।
  
 +
मूल कुमाउनी कविता : गलहार बन्देमातरम्
  
शरीर में जान से अधिक
+
छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम्,
जरूरी हो गई है
+
हम गरीबन को छ यो गलहार बन्देमातरम्।
गाड़ियों के पहियों में हवा!
+
उनकी हवा निकल गई तो
+
समझो मनुश्य की जिन्दगी ही रुक गई।
+
  
पहले सभी काम-धंधे होते थे हाथ-पैरों से
+
हम त वी छौं जोकि हुण चैंछ हमन ये बखत पर,
खेती-बाड़ी में पैदा किया जाता था अनाज
+
आज कूंणा लागि रछ संसार बन्देमातरम्।
गाय-बच्छियों को पाल-पोशकर मिलता था दूध-घी
+
जंगल से लाते थे लकड़ियां ईंधन को
+
नमक के अतिरिक्त
+
सब कुछ हाथ-पांव ही पैदा करते थे।
+
  
आज अनाज पैदा होता है-बनिये की दुकान पर
+
दुर्जनन को मन जली भंगार हूं छ वी बखत,
सब्जी मण्डी में
+
कान में जब पुजनछ झंकार बन्देमातरम् ।
और दूध देती हैं थैलियां।
+
  
गाड़ी, गैस, बिजली, पानी, टेलीफोन, कम्प्यूटर के
+
जेल में चाखा पिसण औ भूख लै मरणा बखत,
हाथों में आज हमारे हाथ-पैर
+
वी बखत लै य कणि करिया प्यार बन्देमातरम्।
ये रुक गऐ
+
फूल जाते हैं हमारे हाथ-पैर
+
आगे न जाने क्या-क्या बनेंगे हमारे हाथ-पैर
+
जिनके बिना हम
+
हाथ-पैर होते हुऐ भी
+
लूले लंगड़े हो जाऐंगे।
+
  
 +
मौत का मुख में खडा़ कूणा लागा हत्यार थें,
 +
ठोकि दे ठोठ्याड‐ में तलवार बन्देमातरम्।
  
मूल कुमाउनी कविता `हात खुट´
+
बैदि लै नाड़ी देखी मुनलै हिलै बेर कै दियो,
 +
यो त देषभक्ती को छ बेमार बन्देमातरम्।
  
आंग में ज्यान है ज्यादे
+
होलि दिवाली ईद है लै लाड़िलो छ सौ गुना,
जरूरी हैगे
+
मानणे छ एक ही यो त्यार बन्देमातरम्।
गा्ड़िक घ्वीरों में हा्व!
+
उनरि सांस मुजि ग्येई....
+
समझो मैंसेकि ज्यूनि`ई थमि गे।
+
आज मैंसा्क हात-खुट जै गा्ड़िक घ्वीर बंड़ि ग्येईं।
+
  
पैली सब काम धंध हुंछी हात-खुटोंल
+
छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम।
खेति-बाड़ि में पैद करी जांछी अनाज
+
गोरु-बा्छ सैन्ति मिलछी दूद-घ्यू
+
बंण बै ल्यूंछी लाका्ड़,
+
नूंण बका्य
+
सब पैद करछी हात-खुटै।
+
  
आज अनाज पैद हूं-बंणियैकि दुकान में
+
गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘
साग मण्डि में,
+
दूद दीं थैलि।
+
  
 +
कुमांऊनी जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘ के काव्य में हमें तत्कालीन पहाडी़ समाज के जीवन से जुडे़ विविध पक्षों के दर्शन होते हैं। उत्तराखंड (कुमाऊंनी) के आदि कवियों में एक. जीवन परिचय : गौरी दत्त पंत "गौर्दा" (1872-1939),
  
गाड़ि, गैस, बिजुलि, पांणि, टेलिफून, कम्प्यूटरा्क
+
प्रकाशित पुस्तक: श्री चारुचंद्र पांडे द्वारा संपादित ‘गौर्दा का काव्यदर्शन,’ देशभक्त प्रेस, अल्मोड़ा, 1965.)
हात में छन हमा्र हात-खुट
+
यं रुकि ग्या्या
+
फुलि जानीं हात-खुट
+
अघिल जांणि कि-कि बणांल हात-खुट
+
जना्र बिना हम
+
छन हात-खुटै
+
लुली जूंल।
+
  
==  तिनका ==
+
जंगल,महिलाओं की दशा,समाज सुधार से लेकर स्थानीय प्रतिरोध और राष्ट्रीय आन्दोलनों तक सभी विषयों पर ‘गौर्दा‘ ने अपनी लेखनी चलाई।‘गौर्दा‘बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। एक कुशल वैद्य के साथ साथ वे गायक, संगीतज्ञ व राम लीला के भी अच्छे कलाकार थे। एक सच्चे समाज सेवी के रुप में वे पाखण्ड,छूआछूत व पाश्चात्य संस्कृति की नकल को हमेशा चुनौती देते रहते थे।
  
छूने से पहले
+
1.इसे छोड़ कहां जाएंगें हम
समझ लो इतना
+
मैं सरल-नाजुक
+
खाली ऐसा-वैसा
+
दांत से फंसा निकालने
+
कान को खुजलाने
+
अथवा कौऐ (बेकार की चीजों) को जलाने वाली पतली लकड़ियों जैसा
+
नहीं हूं, बिल्कुल नहीं हूं।
+
  
मैं सीढ़ी बन कर
+
कुमाऊं हमारा है, हम कुमाऊं के हैं, यहीं हमारी सब खेती बाड़ी है. तराई, भाबर, वन-वृक्ष, पवनचक्कियां, नदियां, पहाड़, पहाड़ियां सब हमारी हैं. यहीं हम पैदा हुए, यहीं रहेंगे, यहीं हमारी नाड़ियां छूटेंगी. यही तो हमारा पितृगृह है, इसे छोड़ कहां जाएंगें हम. फिर फिर यहीं जन्म लेंगे. ये थाती हमे प्यारी है. बद्री केदार धाम भी यहीं हैं, कैसी कैसी पुष्प वाटिकाएं हैं, पांचों प्रयाग और उत्तरकाशी सब हमारे सामने है.
(एक पौराणिक मान्यता के अनुसार) तुम्हारे पूर्वजों को स्वर्ग पहुंचा सकता हूं
+
सूण्ड में घुस कर
+
हाथी को भी मार सकता हूं
+
  
जो कान
+
सबसे बड़ा पर्वत हिमालय, जिसके पीछे कैलास है,
सच नहीं सुनते-
+
यहीं स्थित है. हमारे यहां दही, दूध, घी की बहार रहती थी, बोरे के बोरे अनाज भरा धरा रहता था, हम ऊंचे में रहे, ऊंचे ही थे.
उन्हें फोड़ सकता हूं।
+
जो आंखें
+
सबको बराबर नहीं देखतीं
+
उन्हें खोंच सकता हूं।
+
दो दंत पंक्तियां
+
अच्छी बातें नहीं बोलतीं
+
उन्हें लहूलुहान कर सकता हूं।
+
  
फिर तुम क्या हो ?
+
हम कोई भी अनाड़ी नहीं थे. पनघट, गोचर सब अपने थे, उनमें कांटेदार तार नहीं लगा था. इमारती लकड़ी, ईंधन चीड़ की नोकदार सूखी पत्तियां, मशाल के लिए ज्वलनशील चीड़ की लकड़ी या छिलके हम वनों से ले आते थे. घरों में खेत के आगे अखरोट, दाड़िम, नींबू, नारंगी के फल लदे रहते थे. घसियारे और ग्वाले घर घर में भैंसे, गायें, बकरियां पालते थे.
मेरे/सींक के
+
तोड़कर दो हिस्से नहीं कर सकते।
+
और अगर में सींकों का गट्ठर जो बन जाऊंगा तो
+
फिर क्या ?
+
  
लड़ोगे मुझ से ?
+
(कुमाऊं का अभिप्राय यहां कुमाऊं कमिश्नरी से है, जिसमें तब समस्त उत्तराखंड शामिल था. कवि कविता में कुमाऊं का व्यापक अर्थ में प्रयोग कर रहा है.)
आओ कर लो दो-दो हाथ
+
पर कह देता हूं इतना
+
में सरल-नाजुक
+
नहीं.....
+
मैं हूं सींक/ तिनका।
+
  
मूल कुमाउनी कविता : सिणुंक
+
मूल कुमाउनी कविता : कां जूंला यैकन छाड़ी
  
ठौक लगूंण है पैली
+
हमरो कुमाऊं, हम छौं कुमइयां, हमरीछ सब खेती बाड़ी तराई भाबर वण बोट घट गाड़, हमरा पहाड़ पहाड़ी यांई भयां हम यांई रूंला यांई छुटलिन नाड़ी पितर कुड़ीछ यांई हमारी, कां जूंला यैकन छाड़ी यांई जनम फिरि फिरि ल्यूंला यो थाती हमन लाड़ी बद्री केदारै धामलै येछन, कसि कसि छन फुलवाड़ी पांच प्रयाग उत्तर काशी, सब छन हमरा अध्याड़ी सब है ठूलो हिमाचल यां छ, कैलास जैका पिछाड़ी रूंछिया दै दूद घ्यू भरी ठेका, नाज कुथल भरी ठाड़ी ऊंचा में रई ऊंचा छियां हम, नी छियां क्वे लै अनाड़ी पनघट गोचर सब छिया आपुण, तार लागी नै पिछाड़ी दार पिरूल पतेल लाकड़ो, ल्यूछियां छिलुकन फाड़ी अखोड़ दाड़िम निमुवां नारिंग, फल रूंछिबाड़ा अघ्याड़ी गोर भैंस बाकरा घर घर सितुकै, पाल छियां ग्वाला घसारी.
समझि लियो इतुक
+
मिं सितिल-पितिल
+
खालि उस-यस
+
दाड़ खचोरणीं,
+
कान खजूणीं,
+
कौ भड्यूणीं क्यड़ जस
+
नैं....कत्तई नैं।
+
  
मिं सिढ़ि बंणि
 
तुमा्र पुरखन कें
 
सरग पुजै सकूं,
 
सूंड में फैटि बेर
 
हा्थि कें लै फरकै सकूं,
 
  
जो कान
+
2.गले का हार वंदे मातरम
सांचि न सुंणन-
+
फोड़ि सकूं,
+
जो आं्ख
+
बरोबर न द्यखन्-
+
खोचि सकूं,
+
जो दाड़
+
भलि बात त बुलान-
+
ल्वयै सकूं।
+
  
फिरि तुमि कि छा ?
+
15 अगस्त के मौके पर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘गौर्दा‘ द्वारा लिखी गयी कविता का हिंदी भावानुवाद:
  
म्या्र/सिंणुका्क
+
अंग्रेजी हुकूमत की यह सरकार हमारे बन्देमातरम को कभी भी नहीं छीन सकती है। यह बन्देमातरम तो हम गरीबों के गले का हार है। हम तो वही कर रहे हैं जो इस वक्त पर हमें करना चाहिए। आज सारा संसार बन्देमातरम का उद्घोष कर रहा है। दुर्जनों (अंग्रेजी हुकूमत )का मन उस समय जल कर भस्म हो जाता है जब उनके कान में बन्देमातरम की झंकार पड़ जाती है। देशभक्तो !तुम जेल में चक्की पीसते और भूख से मरते समय पर भी इसी बन्देमातरम को प्यार करना।मौत के मुहाने पर खडे़ देशभक्त कह रहे हैं बन्देमातरम की तलवार इनकी छाती में घोंप देंगे। देशभक्तों की नाड़ी देखकर वैद्य भी अब सिर हिलाकर कहने लगे हैं कि इन्हें बन्देमातरम की बीमारी जकड़ चुकी है। इन देशभक्तों के लिये तो यह बन्देमातरम, होली ,दिवाली व ईद के त्यौहार से भी सौ गुना ज्यादा प्यारा हो गया है।
टोड़ि बेर न करि सकना द्वि !
+
हौर मिं
+
गढ़व जै बंणि जूंलौ...
+
फिरि कि ?
+
  
लड़ला मिं हुं ?
+
मूल कुमाउनी कविता : गलहार बन्देमातरम्
आ्ओ, करि ल्हिओ ओ द्वि-द्वि हात
+
पर कै द्यूं इतुक
+
मिं सितिल-पितिल
+
नैं.....
+
मिं छुं सिणुंक।
+
  
== पत्थर ==
+
छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम्, हम गरीबन को छ यो गलहार बन्देमातरम्।
  
 +
हम त वी छौं जोकि हुण चैंछ हमन ये बखत पर, आज कूंणा लागि रछ संसार बन्देमातरम्।
  
पत्थर जब पथराव में प्रयोग किऐ जाते हैं
+
दुर्जनन को मन जली भंगार हूं छ वी बखत, कान में जब पुजनछ झंकार बन्देमातरम् ।
बड़ी बड़ी बन्दूकें भी
+
उन्हें सलाम ठोकती हैं
+
टेढ़े से टेढ़े लोगों को भी सिर फोड़
+
कर देते हैं सीधा,
+
कहते हैं-
+
न करना बुरे काम
+
न जाना गलत रास्ते।
+
लोग जब-जब रास्ता भटकते हैं
+
पत्थर नुकीले हो जाते हैं
+
चुभते हैं पांवों में
+
कर देते हैं खून ही खून
+
या फिर
+
धकिया देते हैं पहाड़ियों से
+
पहुंचा देते हैं पाताल।
+
  
 +
जेल में चाखा पिसण औ भूख लै मरणा बखत, वी बखत लै य कणि करिया प्यार बन्देमातरम्।
  
लोग जब अच्छे रास्ते जाते हैं
+
मौत का मुख में खडा़ कूणा लागा हत्यार थें, ठोकि दे ठोठ्याड‐ में तलवार बन्देमातरम्।
पत्थर देवता बन जाते हैं।
+
कोई ग्वल, कोई गंगनाथ
+
कोई ब्रहमा, बिष्णु, महेश भी
+
नदी में बहते हुऐ
+
नदी के पत्थर बन जाते हैं शिवलिंग से
+
अच्छी आशीष-
+
जो मांगो, दे देते हैं।
+
  
 +
बैदि लै नाड़ी देखी मुनलै हिलै बेर कै दियो, यो त देषभक्ती को छ बेमार बन्देमातरम्।
  
जाने कितने काम
+
होलि दिवाली ईद है लै लाड़िलो छ सौ गुना, मानणे छ एक ही यो त्यार बन्देमातरम्।
मसाला पीसने, धान कूटने, गेहूं पीसने
+
खेत, मकान, नींचे-ऊपर
+
क्हां नहीं लगते पत्थर
+
आंव-खून लग जाऐ तो
+
घी में छौंक कर चाटे भी जाते हैं पत्थर।
+
  
 
+
छीनी सकनी कभै सरकार बन्देमातरम।
पर आज
+
पत्थरों की कोई कद्र नहीं
+
ठोकर मारी जा रही उन्हें
+
कमजोर-बेकार समझते हुऐ
+
फेंके-तोड़े
+
बेहद सस्ते में उपजाऊ खेत, चरागाह खोदकर
+
बेचे जा रहे हैं पत्थर।
+
 
+
 
+
कल यही पत्थर
+
बन जाऐंगे `मील के पत्थर´
+
लिखी जाऐंगी इन पर
+
वक्त की कुण्डलियां
+
शिलालेख बन जाऐंगे यह
+
सूंघ-सूंघ कर तलाशे जाऐंगे
+
सजाऐ जाऐंगे संग्रहालयों में
+
सैनिक करेंगे इनकी सुरक्षा
+
पैंसे लगेंगे इनके दर्शनों के।
+
 
+
 
+
पर क्या फायदा
+
दिवंगत पूर्वजों पर
+
सर्वस्व न्यौछावर कर भी
+
जब जीवित रहते
+
की उनकी फिक्र
+
कहीं ऐसा न हो
+
तब तक यह
+
घिस-घिस कर ही
+
रेत हो जाऐं, मिट्टी हो जाऐं।
+
 
+
 
+
मूल कुमाउनी कविता : ढुंग
+
 
+
ढुंग.. जब घन्तर बणनीं
+
ठुल-ठुल एकना्ली-द्विना्ली लै
+
सिलाम करनीं उनूकैं
+
ट्याड़-ट्याड़नैकि कपा्ई फोड़ि
+
करि दिनीं सिदि्द,
+
कूनीं-
+
झन करिया कुकाम
+
झन जाया कुबा्ट।
+
मैंस जब-जब भबरीनीं
+
ढुंग.. है जानीं तिख
+
बुड़नीं खुटों में
+
करि दिनीं ल्वेयोव
+
कि ढ्या्स लागि
+
घुर्ये  दिनीं भ्योव
+
पुजै दिनीं पताव।
+
 
+
मैंस जब जा्नीं भा्ल बा्ट
+
ढुंग.. बणि जा्नीं द्याप्त
+
क्वे ग्वल्ल, क्वे गंगनाथ
+
क्वे ब्रह्मा, बिश्णु, महेश लै
+
गाड़ में बगि-बगि बेर
+
गंगल्वाड़ बणि जानीं शिवलिंग
+
भलि अशीक दिनीं
+
जि मांगौ दि दिनीं।
+
 
+
जांणि कतू काम
+
मस्याल घैसंण, धान कुटंण, ग्युं पिसंण
+
गा्ड़-कुड़, इचा्ल-कन्हा्व
+
कां न ला्गन ढुंग.
+
औंव खून लागि गयौ
+
घ्यू में छौंकि चाटी जानीं ढुड.।
+
 
+
पर आज
+
ढुंगैंकि  क्ये कदर न्है
+
लत्यायी, जोत्याई
+
बुसिल-पितिल समझि
+
ख्येड़ी-फोड़ी
+
द्वि-द्वि डबल में गा्ड़-स्या्र खंड़ि
+
बेची जांणईं ढुंग.।
+
 
+
भो यै ढुंग.
+
यं आजा्क बा्टाक रर्वा्ड़
+
बंणि जा्ल `माइलस्टोन´
+
ल्येखी जा्ल इनूं पारि
+
बखता्क कुना्व
+
शिलालेख बंणि जा्ल यं
+
सुंई-सुंई बेर ढुनि
+
छजाई जा्ल संग्रहालयों में
+
पहरू द्या्ल इनर पहर
+
डबल लागा्ल इनूकैं द्यखणा्क।
+
 
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पै कि फैद
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मरी पितर भात खवै
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जब ज्यून छनै
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निकरि इनैरि फिकर
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खालि मारि लात।
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यस न हओ
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तब जांलै
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घ्वेसी-घ्वेसी बेर
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यं रेत है जा्ल, मटी जा्ल।
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19:26, 25 नवम्बर 2012 के समय का अवतरण

गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘

कुमांऊनी जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘ के काव्य में हमें तत्कालीन पहाडी़ समाज के जीवन से जुडे़ विविध पक्षों के दर्शन होते हैं। उत्तराखंड (कुमाऊंनी) के आदि कवियों में एक. जीवन परिचय : गौरी दत्त पंत "गौर्दा" (1872-1939),

प्रकाशित पुस्तक: श्री चारुचंद्र पांडे द्वारा संपादित ‘गौर्दा का काव्यदर्शन,’ देशभक्त प्रेस, अल्मोड़ा, 1965.)

जंगल,महिलाओं की दशा,समाज सुधार से लेकर स्थानीय प्रतिरोध और राष्ट्रीय आन्दोलनों तक सभी विषयों पर ‘गौर्दा‘ ने अपनी लेखनी चलाई।‘गौर्दा‘बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। एक कुशल वैद्य के साथ साथ वे गायक, संगीतज्ञ व राम लीला के भी अच्छे कलाकार थे। एक सच्चे समाज सेवी के रुप में वे पाखण्ड,छूआछूत व पाश्चात्य संस्कृति की नकल को हमेशा चुनौती देते रहते थे।

1.इसे छोड़ कहां जाएंगें हम

कुमाऊं हमारा है, हम कुमाऊं के हैं, यहीं हमारी सब खेती बाड़ी है. तराई, भाबर, वन-वृक्ष, पवनचक्कियां, नदियां, पहाड़, पहाड़ियां सब हमारी हैं. यहीं हम पैदा हुए, यहीं रहेंगे, यहीं हमारी नाड़ियां छूटेंगी. यही तो हमारा पितृगृह है, इसे छोड़ कहां जाएंगें हम. फिर फिर यहीं जन्म लेंगे. ये थाती हमे प्यारी है. बद्री केदार धाम भी यहीं हैं, कैसी कैसी पुष्प वाटिकाएं हैं, पांचों प्रयाग और उत्तरकाशी सब हमारे सामने है.

सबसे बड़ा पर्वत हिमालय, जिसके पीछे कैलास है, 

यहीं स्थित है. हमारे यहां दही, दूध, घी की बहार रहती थी, बोरे के बोरे अनाज भरा धरा रहता था, हम ऊंचे में रहे, ऊंचे ही थे.

हम कोई भी अनाड़ी नहीं थे. पनघट, गोचर सब अपने थे, उनमें कांटेदार तार नहीं लगा था. इमारती लकड़ी, ईंधन चीड़ की नोकदार सूखी पत्तियां, मशाल के लिए ज्वलनशील चीड़ की लकड़ी या छिलके हम वनों से ले आते थे. घरों में खेत के आगे अखरोट, दाड़िम, नींबू, नारंगी के फल लदे रहते थे. घसियारे और ग्वाले घर घर में भैंसे, गायें, बकरियां पालते थे.

(कुमाऊं का अभिप्राय यहां कुमाऊं कमिश्नरी से है, जिसमें तब समस्त उत्तराखंड शामिल था. कवि कविता में कुमाऊं का व्यापक अर्थ में प्रयोग कर रहा है.)

मूल कुमाउनी कविता : कां जूंला यैकन छाड़ी

हमरो कुमाऊं, हम छौं कुमइयां, हमरीछ सब खेती बाड़ी तराई भाबर वण बोट घट गाड़, हमरा पहाड़ पहाड़ी यांई भयां हम यांई रूंला यांई छुटलिन नाड़ी पितर कुड़ीछ यांई हमारी, कां जूंला यैकन छाड़ी यांई जनम फिरि फिरि ल्यूंला यो थाती हमन लाड़ी बद्री केदारै धामलै येछन, कसि कसि छन फुलवाड़ी पांच प्रयाग उत्तर काशी, सब छन हमरा अध्याड़ी सब है ठूलो हिमाचल यां छ, कैलास जैका पिछाड़ी रूंछिया दै दूद घ्यू भरी ठेका, नाज कुथल भरी ठाड़ी ऊंचा में रई ऊंचा छियां हम, नी छियां क्वे लै अनाड़ी पनघट गोचर सब छिया आपुण, तार लागी नै पिछाड़ी दार पिरूल पतेल लाकड़ो, ल्यूछियां छिलुकन फाड़ी अखोड़ दाड़िम निमुवां नारिंग, फल रूंछिबाड़ा अघ्याड़ी गोर भैंस बाकरा घर घर सितुकै, पाल छियां ग्वाला घसारी.


2.गले का हार वंदे मातरम

15 अगस्त के मौके पर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘गौर्दा‘ द्वारा लिखी गयी कविता का हिंदी भावानुवाद:

अंग्रेजी हुकूमत की यह सरकार हमारे बन्देमातरम को कभी भी नहीं छीन सकती है। यह बन्देमातरम तो हम गरीबों के गले का हार है। हम तो वही कर रहे हैं जो इस वक्त पर हमें करना चाहिए। आज सारा संसार बन्देमातरम का उद्घोष कर रहा है। दुर्जनों (अंग्रेजी हुकूमत )का मन उस समय जल कर भस्म हो जाता है जब उनके कान में बन्देमातरम की झंकार पड़ जाती है। देशभक्तो !तुम जेल में चक्की पीसते और भूख से मरते समय पर भी इसी बन्देमातरम को प्यार करना।मौत के मुहाने पर खडे़ देशभक्त कह रहे हैं बन्देमातरम की तलवार इनकी छाती में घोंप देंगे। देशभक्तों की नाड़ी देखकर वैद्य भी अब सिर हिलाकर कहने लगे हैं कि इन्हें बन्देमातरम की बीमारी जकड़ चुकी है। इन देशभक्तों के लिये तो यह बन्देमातरम, होली ,दिवाली व ईद के त्यौहार से भी सौ गुना ज्यादा प्यारा हो गया है।

मूल कुमाउनी कविता : गलहार बन्देमातरम्

छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम्, हम गरीबन को छ यो गलहार बन्देमातरम्।

हम त वी छौं जोकि हुण चैंछ हमन ये बखत पर, आज कूंणा लागि रछ संसार बन्देमातरम्।

दुर्जनन को मन जली भंगार हूं छ वी बखत, कान में जब पुजनछ झंकार बन्देमातरम् ।

जेल में चाखा पिसण औ भूख लै मरणा बखत, वी बखत लै य कणि करिया प्यार बन्देमातरम्।

मौत का मुख में खडा़ कूणा लागा हत्यार थें, ठोकि दे ठोठ्याड‐ में तलवार बन्देमातरम्।

बैदि लै नाड़ी देखी मुनलै हिलै बेर कै दियो, यो त देषभक्ती को छ बेमार बन्देमातरम्।

होलि दिवाली ईद है लै लाड़िलो छ सौ गुना, मानणे छ एक ही यो त्यार बन्देमातरम्।

छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम।

गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘

कुमांऊनी जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘ के काव्य में हमें तत्कालीन पहाडी़ समाज के जीवन से जुडे़ विविध पक्षों के दर्शन होते हैं। उत्तराखंड (कुमाऊंनी) के आदि कवियों में एक. जीवन परिचय : गौरी दत्त पंत "गौर्दा" (1872-1939),

प्रकाशित पुस्तक: श्री चारुचंद्र पांडे द्वारा संपादित ‘गौर्दा का काव्यदर्शन,’ देशभक्त प्रेस, अल्मोड़ा, 1965.)

जंगल,महिलाओं की दशा,समाज सुधार से लेकर स्थानीय प्रतिरोध और राष्ट्रीय आन्दोलनों तक सभी विषयों पर ‘गौर्दा‘ ने अपनी लेखनी चलाई।‘गौर्दा‘बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। एक कुशल वैद्य के साथ साथ वे गायक, संगीतज्ञ व राम लीला के भी अच्छे कलाकार थे। एक सच्चे समाज सेवी के रुप में वे पाखण्ड,छूआछूत व पाश्चात्य संस्कृति की नकल को हमेशा चुनौती देते रहते थे।

1.इसे छोड़ कहां जाएंगें हम

कुमाऊं हमारा है, हम कुमाऊं के हैं, यहीं हमारी सब खेती बाड़ी है. तराई, भाबर, वन-वृक्ष, पवनचक्कियां, नदियां, पहाड़, पहाड़ियां सब हमारी हैं. यहीं हम पैदा हुए, यहीं रहेंगे, यहीं हमारी नाड़ियां छूटेंगी. यही तो हमारा पितृगृह है, इसे छोड़ कहां जाएंगें हम. फिर फिर यहीं जन्म लेंगे. ये थाती हमे प्यारी है. बद्री केदार धाम भी यहीं हैं, कैसी कैसी पुष्प वाटिकाएं हैं, पांचों प्रयाग और उत्तरकाशी सब हमारे सामने है.

सबसे बड़ा पर्वत हिमालय, जिसके पीछे कैलास है, यहीं स्थित है. हमारे यहां दही, दूध, घी की बहार रहती थी, बोरे के बोरे अनाज भरा धरा रहता था, हम ऊंचे में रहे, ऊंचे ही थे.

हम कोई भी अनाड़ी नहीं थे. पनघट, गोचर सब अपने थे, उनमें कांटेदार तार नहीं लगा था. इमारती लकड़ी, ईंधन चीड़ की नोकदार सूखी पत्तियां, मशाल के लिए ज्वलनशील चीड़ की लकड़ी या छिलके हम वनों से ले आते थे. घरों में खेत के आगे अखरोट, दाड़िम, नींबू, नारंगी के फल लदे रहते थे. घसियारे और ग्वाले घर घर में भैंसे, गायें, बकरियां पालते थे.

(कुमाऊं का अभिप्राय यहां कुमाऊं कमिश्नरी से है, जिसमें तब समस्त उत्तराखंड शामिल था. कवि कविता में कुमाऊं का व्यापक अर्थ में प्रयोग कर रहा है.)

मूल कुमाउनी कविता : कां जूंला यैकन छाड़ी

हमरो कुमाऊं, हम छौं कुमइयां, हमरीछ सब खेती बाड़ी तराई भाबर वण बोट घट गाड़, हमरा पहाड़ पहाड़ी यांई भयां हम यांई रूंला यांई छुटलिन नाड़ी पितर कुड़ीछ यांई हमारी, कां जूंला यैकन छाड़ी यांई जनम फिरि फिरि ल्यूंला यो थाती हमन लाड़ी बद्री केदारै धामलै येछन, कसि कसि छन फुलवाड़ी पांच प्रयाग उत्तर काशी, सब छन हमरा अध्याड़ी सब है ठूलो हिमाचल यां छ, कैलास जैका पिछाड़ी रूंछिया दै दूद घ्यू भरी ठेका, नाज कुथल भरी ठाड़ी ऊंचा में रई ऊंचा छियां हम, नी छियां क्वे लै अनाड़ी पनघट गोचर सब छिया आपुण, तार लागी नै पिछाड़ी दार पिरूल पतेल लाकड़ो, ल्यूछियां छिलुकन फाड़ी अखोड़ दाड़िम निमुवां नारिंग, फल रूंछिबाड़ा अघ्याड़ी गोर भैंस बाकरा घर घर सितुकै, पाल छियां ग्वाला घसारी.


2.गले का हार वंदे मातरम

15 अगस्त के मौके पर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘गौर्दा‘ द्वारा लिखी गयी कविता का हिंदी भावानुवाद:

अंग्रेजी हुकूमत की यह सरकार हमारे बन्देमातरम को कभी भी नहीं छीन सकती है। यह बन्देमातरम तो हम गरीबों के गले का हार है। हम तो वही कर रहे हैं जो इस वक्त पर हमें करना चाहिए। आज सारा संसार बन्देमातरम का उद्घोष कर रहा है। दुर्जनों (अंग्रेजी हुकूमत )का मन उस समय जल कर भस्म हो जाता है जब उनके कान में बन्देमातरम की झंकार पड़ जाती है। देशभक्तो !तुम जेल में चक्की पीसते और भूख से मरते समय पर भी इसी बन्देमातरम को प्यार करना।मौत के मुहाने पर खडे़ देशभक्त कह रहे हैं बन्देमातरम की तलवार इनकी छाती में घोंप देंगे। देशभक्तों की नाड़ी देखकर वैद्य भी अब सिर हिलाकर कहने लगे हैं कि इन्हें बन्देमातरम की बीमारी जकड़ चुकी है। इन देशभक्तों के लिये तो यह बन्देमातरम, होली ,दिवाली व ईद के त्यौहार से भी सौ गुना ज्यादा प्यारा हो गया है।

मूल कुमाउनी कविता : गलहार बन्देमातरम्

छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम्, हम गरीबन को छ यो गलहार बन्देमातरम्।

हम त वी छौं जोकि हुण चैंछ हमन ये बखत पर, आज कूंणा लागि रछ संसार बन्देमातरम्।

दुर्जनन को मन जली भंगार हूं छ वी बखत, कान में जब पुजनछ झंकार बन्देमातरम् ।

जेल में चाखा पिसण औ भूख लै मरणा बखत, वी बखत लै य कणि करिया प्यार बन्देमातरम्।

मौत का मुख में खडा़ कूणा लागा हत्यार थें, ठोकि दे ठोठ्याड‐ में तलवार बन्देमातरम्।

बैदि लै नाड़ी देखी मुनलै हिलै बेर कै दियो, यो त देषभक्ती को छ बेमार बन्देमातरम्।

होलि दिवाली ईद है लै लाड़िलो छ सौ गुना, मानणे छ एक ही यो त्यार बन्देमातरम्।

छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम।