"दस दोहे (61-70) / चंद्रसिंह बिरकाली" के अवतरणों में अंतर
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) छो |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) छो ("दस दोहे (61-70) / चंद्रसिंह बिरकाली" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
[[Category: दोहा]] | [[Category: दोहा]] | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | प्रीतम भेजी बादळी, इण में मीन न मेख । | ||
+ | बरसण मिस झुरै खड़ी धण विळवंती देख ।।61।। | ||
− | + | इस बादली को प्रियतम ने भेजा है । इसमें मीन-मेख नही है । धन्या को विलाप करते हुए देख कर यह बरसने के मिस रो रही है । | |
− | + | ||
− | + | भेट्यां डूंगर खरदरा खररो हुयो सुभाव । | |
+ | भाजै गाजै गड़गडै तेज दिखावै ताव ।।62।। | ||
− | + | ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों से संपर्क रखने के कारण बादली का स्वभाव भी कड़ा हो गया है । तभी तो यह दौड़ती है, "गड़-गड़" शब्द करके गरज़ती है तथा तेज़ ताव दिखाती है । | |
− | + | ||
− | + | पड़ड़-पड़ड़ बूंदां पड़ै, गड़ड़-गड़ड़ घण गाज । | |
+ | कड़ड़-कड़ड़ बीजळ करै, धड़ड़-धड़ड़ धर आज ।।63।। | ||
− | पड़ड़-पड़ड़ | + | पड़ड़-पड़ड़ करती हुई बूँदे पड़ रही हैं, गड़ड़-गड़ड करते हुए बादल गरज रहे हैं, कड़ड़-कड़ड करती हुई बिजली चमक रही है और धरा पर आज चारों ओर धड़ड़-धड़ड की आवाज़ हो रही है । |
− | कड़ड़- | + | |
− | + | परनाळां पानी पड़ै नाळा चळवळिया । | |
+ | पोखर आस पुरावणा खाळा खळवळिया ।।64।। | ||
− | + | छतों के नालों से गिरता हुआ पानी छोटी नालियों में कूदता हुआ बड़े नालों में मिलकर बहता है और तालाबों की आशा पूरी करता है । | |
− | + | ||
− | + | टप-टप चूवै आसरा टप-टप विरही नैण । | |
+ | झप-झप पळका बीज रा झप-झप हिवड़ो सैण ।।65।। | ||
− | + | कमरों की छतें टपक टपक चू रही है और इसी प्रकार विरहिनियों के नयन भी । बिजली का प्रकाश झप-झप कर रहा है और इसी प्रकार साजन का हृदय भी । | |
− | + | ||
− | + | छातां पर पाणी पड्यो परनाळां न समायं । | |
+ | वळ खाता वाळा वगै खाळां जोडां मांय ।।66।। | ||
− | + | छतों पर पड़ा हुआ पानी नालियों में नही समा रहा है । बल खाते हुए छोटे नाले बड़े नालों और तालाबों में जा मिलते हैं । | |
− | + | ||
− | + | चोवै कच्चा आसरा पड़वै कीच अपार । | |
+ | ले माटी नर पूगिया छातां पर उण वार ।।67।। | ||
− | + | कच्चे मकान चू रहे है और अपार कीचड़ हो रहा है । ऐसे समय में आदमी मिट्टी लेकर छतों पर पहुँचे । | |
− | + | ||
− | + | डांड्यां पाणी सूं भरी रूकिया सारा राह । | |
+ | पंथी एक न नीसरै घण वरसंतै मांह ।।68।। | ||
− | + | पगडंडियां पानी से भर गई हैं और सारे मार्ग रूक गए हैं। इस ज़ोर की बरसात में एक भी पथिक बाहर नही निकलता है । | |
− | + | ||
− | + | चालै पवन अटावरी घिर-घिर बादळ आय । | |
+ | फुर फटकारा फांक रा जळ ही जळ कर जाय ।।69।। | ||
− | + | तेज वायु चल रही है और बादल घिर-घिर कर आ रहे हैं । जल सहित वायु के झोंके रह-रह कर जल ही जल कर जाते हैं । | |
− | + | ||
− | + | आय फांक उतराध री वूठ्यो तकड़ो मेह । | |
+ | छातां तालां डैरियां जळ ही जळ दीसेह ।।70।। | ||
− | + | उतर दिशा को झोंका आया और घनघोर वर्षा होने लगी । छतों, तालों और डेरों में सर्वत्र जल ही जल दिखाई देने लगा । | |
− | + | </poem> | |
− | + | ||
− | उतर दिशा को झोंका आया और घनघोर वर्षा होने | + |
22:02, 1 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण
प्रीतम भेजी बादळी, इण में मीन न मेख ।
बरसण मिस झुरै खड़ी धण विळवंती देख ।।61।।
इस बादली को प्रियतम ने भेजा है । इसमें मीन-मेख नही है । धन्या को विलाप करते हुए देख कर यह बरसने के मिस रो रही है ।
भेट्यां डूंगर खरदरा खररो हुयो सुभाव ।
भाजै गाजै गड़गडै तेज दिखावै ताव ।।62।।
ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों से संपर्क रखने के कारण बादली का स्वभाव भी कड़ा हो गया है । तभी तो यह दौड़ती है, "गड़-गड़" शब्द करके गरज़ती है तथा तेज़ ताव दिखाती है ।
पड़ड़-पड़ड़ बूंदां पड़ै, गड़ड़-गड़ड़ घण गाज ।
कड़ड़-कड़ड़ बीजळ करै, धड़ड़-धड़ड़ धर आज ।।63।।
पड़ड़-पड़ड़ करती हुई बूँदे पड़ रही हैं, गड़ड़-गड़ड करते हुए बादल गरज रहे हैं, कड़ड़-कड़ड करती हुई बिजली चमक रही है और धरा पर आज चारों ओर धड़ड़-धड़ड की आवाज़ हो रही है ।
परनाळां पानी पड़ै नाळा चळवळिया ।
पोखर आस पुरावणा खाळा खळवळिया ।।64।।
छतों के नालों से गिरता हुआ पानी छोटी नालियों में कूदता हुआ बड़े नालों में मिलकर बहता है और तालाबों की आशा पूरी करता है ।
टप-टप चूवै आसरा टप-टप विरही नैण ।
झप-झप पळका बीज रा झप-झप हिवड़ो सैण ।।65।।
कमरों की छतें टपक टपक चू रही है और इसी प्रकार विरहिनियों के नयन भी । बिजली का प्रकाश झप-झप कर रहा है और इसी प्रकार साजन का हृदय भी ।
छातां पर पाणी पड्यो परनाळां न समायं ।
वळ खाता वाळा वगै खाळां जोडां मांय ।।66।।
छतों पर पड़ा हुआ पानी नालियों में नही समा रहा है । बल खाते हुए छोटे नाले बड़े नालों और तालाबों में जा मिलते हैं ।
चोवै कच्चा आसरा पड़वै कीच अपार ।
ले माटी नर पूगिया छातां पर उण वार ।।67।।
कच्चे मकान चू रहे है और अपार कीचड़ हो रहा है । ऐसे समय में आदमी मिट्टी लेकर छतों पर पहुँचे ।
डांड्यां पाणी सूं भरी रूकिया सारा राह ।
पंथी एक न नीसरै घण वरसंतै मांह ।।68।।
पगडंडियां पानी से भर गई हैं और सारे मार्ग रूक गए हैं। इस ज़ोर की बरसात में एक भी पथिक बाहर नही निकलता है ।
चालै पवन अटावरी घिर-घिर बादळ आय ।
फुर फटकारा फांक रा जळ ही जळ कर जाय ।।69।।
तेज वायु चल रही है और बादल घिर-घिर कर आ रहे हैं । जल सहित वायु के झोंके रह-रह कर जल ही जल कर जाते हैं ।
आय फांक उतराध री वूठ्यो तकड़ो मेह ।
छातां तालां डैरियां जळ ही जळ दीसेह ।।70।।
उतर दिशा को झोंका आया और घनघोर वर्षा होने लगी । छतों, तालों और डेरों में सर्वत्र जल ही जल दिखाई देने लगा ।