भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ग्रहण / नवारुण भट्टाचार्य" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नवारुण भट्टाचार्य |संग्रह=यह मृत्यु उपत्यका नह…)
 
 
पंक्ति 37: पंक्ति 37:
 
भूमंडल पर फ़िलहाल है छाया का ग्रहण।
 
भूमंडल पर फ़िलहाल है छाया का ग्रहण।
 
</poem>
 
</poem>
 +
{{KKMeaning}}

08:12, 21 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण

चुप,
अभी लगा है ग्रहण
इसीलिए सारा कुछ छाया से ढँका है
     दूर चीनी मिट्टी के बर्तनों की दूकान
     ठास्स-कप प्लेट या प्लेट की चीत्कार
     मोहेंजोदड़ो का वह मोतियाबिंद वाला सांड़
    अचानक घुस आता है सींग हिलाता हुआ
सहसा नाक पर घूँसा
मारकर सरक गई छाया
शैडो बाक्सिंग!
चुंबन!
छाया की बनी औरत
उसकी कलाइयों में छाया की शंख-चूड़ियाँ<ref>बंगाल में शंख की बनी चूड़ियाँ सुहागिन होने का प्रतीक हैं जिन्हे विधवा होने पर सबसे पहले तोड़ा जाता है।</ref>
छाया की छत से घूमता है
     भौतिक छाया वाला पंखा
छाया में बच्चा रोता है
उसके मुँह में दान में दिए स्तन
आसानी से ठूँस देते हैं
    छाया से ढँके विदेशी मिशन।

वाह,
टेलीविजन पर छाया खेल करती है
उपछाया रातोंरात प्रच्छाया बन जाती है
छाया की खिड़की से हू-हू करता
     छाया-चूर्ण घुसता है
कोई खिलखिलाता है कोई रो पड़ता है
      छाया नाम धारी किसी प्रेमिका की याद में!
पार्टनर!
पटवारी-नुमा बुद्धि छोड़ कर अब धर्म में लगाओ मन।
भूमंडल पर फ़िलहाल है छाया का ग्रहण।

शब्दार्थ
<references/>