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आरियों से चीरे गए हम,
बुरादा बने-पाट बने हम,
फिर भी तुमने हृदय न रक्खा
दिया जलाकर हर्ष न रक्खा
पंख खोलकर प्यार न रक्खा
कनक किरन का हार न रक्खा
यौवन का आभार न रक्खा
हम पर अंगड़-खंगड़ रक्खा।
(यह कविता २२-११-१९५९ को लिखी कविता का परिष्कृत रूप है)
रचनाकाल: १५-११-१९७०