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उसकी हँसी
घुल गई
हिमालय की हीरक हँसी में
और मैं
धूप की भरी
नदी से उठ-उठ कर
निनादित
दौड़ने, घूमने
और
चरने लगा
दिगंत तक फैली वनस्पति को
रचनाकाल: ०९-०३-१९७५