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यदि विवाह-बंधन थे झूठे!
कैसे वे मुझसे यों रूठे
झलक न दिखलायी है!
ज्यों ही शोध प्रिया की जानी
प्रभु ने लंका-जय की ठानी
सखि! मेरी तो करुण कहानी
घर-घर में छायी है
तन में भले भभूत रमायी
मन से क्यों मैं गयी भुलायी!
राम-कथा क्या मुझे न भायी
क्यों यह निठुरायी है !
कभी मेरी सुधि भी आयी है,
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