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समाधिस्थ / अज्ञेय

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|रचनाकार=अज्ञेय
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<poem>
मुझ में कुछ है
जो मेरा बिलकुल अपना है
जो है मेरे क्षीरोज्ज्वल मन के मन्थन का कोमल माखन।
जिस को मैं ने बहुत टूट कर
बहुत-बहुत अपने में रह कर
बहुत-बहुत सह कर पाया है-
जिस को अहरह दुलराया है।
गद्गद चिन्तन, आराधन, एकान्त समर्पण की घड़ियों में
वही-वही है : मेरा आश्रय, मेरा आत्मज, पूर्णभूत मैं।
जिस को स्वर में, लय में, शत चित्रों में,
शत-शत संकेतों में तुम को देना चाह रहा हूँ।
पर वह मेरी लब्धि
-शायद सागर-तटवासी अचल कपिल वह-
मुझ में कुछ है<br>जो मेरा बिलकुल अपना है<br>जो है मेरे क्षीरोज्ज्वल मन के मन्थन का कोमल माखन।<br>जिस को मैं ने बहुत टूट कर<br>बहुत-बहुत अपने में रह कर <br>बहुत-बहुत सह कर पाया है-<br>जिस को अहरह दुलराया है। <br>गद्गद चिन्तन, आराधन, एकान्त समर्पण की घड़ियों में<br>वही-वही है : मेरा आश्रय, मेरा आत्मज, पूर्णभूत मैं।<br>जिस को स्वर में, लय में, शत चित्रों में,<br>शत-शत संकेतों में तुम को देना चाह रहा हूँ। <br>पर वह मेरी लब्धि<br>-शायद सागर-तटवासी अचल कपिल वह- <br><br> समाधिस्थ है :<br>कोंच रहे हैं उसको रह-रह<br>मेरे व्याकुल यत्न सहस्त्र-सहस्त्र सगर पुत्रों से सज्जित<br>(इस भय को भी भूल कि निश्चय भस्म सभी ये हो जायेंगे<br>जब उस की समाधि टूटेगी)<br>-कोंच रहे हैं : पर वह स्थिर है।<br>-जगा रहे हैं अनुक्षण : पर वह स्थिर है।<br>कब जागेगा-कब जागेगा<br>यह दर्पण-गिरि-गुहा निवासी ?<br>कब तुरीय त्यागेगा-<br>यह अन्तस्थ, अचल संन्यासी ?<br/poem>
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