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|रचनाकार= आसी ग़ाज़ीपुरी
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<poem>
न कभी के बादापरस्त हम, न हमें यह कैफ़े-शराब है।
 
लबेयार चूमें हैं ख़्वाब में, वही जोशे-मस्तिये-ख़्वाब है॥
 
दिल मुब्तिला है तिरा ही घर, उसे रहने दे कि ख़राब कर।
 
कोई मेरी तरह तुझे मगर न कहे, कि ख़ानाख़राब है॥
 
उन्हें किब्रे-हुस्न की नख़वतें, मुझे फ़ैज़े-इश्क़ की हैरतें।
 
न कलाम है, न पयाम है, न सवाल है, न जवाब है।।
 
दिले-अन्दलीब यह शक नहीं, गुलो-लाला के यह वरक़ नहीं।
 
मेरे इश्क़ का वो रिसाला है, तेरे हुस्न की यह किताब है॥
</Poem>
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