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न उनके कुटी-द्वार से हिलो।
विदित क्या तुम्हें, देवि, क्या हुआ,
रुधिर स्वेद के रूप में चुआ।
विपिन में कभी सो सका न मैं,
अधिक क्या कहूँ, रो सका न मैं।
वचन ये पुरस्कार में मिले,
अहह उर्मिले! हाय उर्मिले!
गिन सको, गिनो शूल, जो चुभे,
सहज है समालोचना शुभे!
कठिन साधना किन्तु तत्व की,
प्रथम चाहिए सिद्धि सत्व की।
कठिन कर्म का क्षेत्र था वहाँ,
पर यहाँ? कहो देवि, क्या यहाँ?
उलहना कभी दैव को दिया,
बहुत जो किया, नेंक रो लिया!
सतत पुण्य या पाप-संगिनी,
समझता रहा आत्मअंगिनी।
स्वपति-पुण्य ही इष्ट था तुम्हें,
प्रियतमे, तपोभ्रष्ट मैं? भला!
मत छुओ मुझे, लौट मैं चला।
 
</poem>
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