Changes

अस्मिता / संध्या पेडणेकर

6 bytes removed, 14:48, 1 मार्च 2010
अनुभव से अधिक
उपदेश है
खुलेपन से ज्यादा ज़्यादा
बनावटीपन है
एक दिन किसी ने कहा
छलछला आयी आई उसकी आँखें सुन कर
कहनेवाले को लगा
आसुओं आँसुओं के साथ उसका
कोरा उपदेश बह गया
उसका बनावटीपन झर गया
एक घडी थी
एक चूल्हा था
परांत परात और बेलन था
छुरी और दरांती थी
सुई-धागा था
झाड़ू था
सीले-सिकुड़े कपड़ों का ढेर था
बाजार बाज़ार की थैली थी
अनाज का डिब्बा था
नोन-मिर्च के साथ
कापियां थीं, पेंसिलें थीं
तहाई हुई, साफ़ धुली चद्दरें थीं
प्रेस किये किए हुए कपड़ों का ढेर था
गिनती पूरी नहीं हुई थी कहने वाले की
असलियत उस पर खुल गयी गई थी
फिर भी
जबान उद्दंडता से
उसकी पहचान ढूंढ ढूँढ रही थी
और अचानक वह कौंधी
उसकी असली मुस्कान चौंधियाती हुई
कहनेवाले के दिल तक उतर आयी आई
और वह
उसकी असलियत को नकार न सका
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,377
edits