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जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।"
 
 
 
"प्रियतम यह नत निस्तब्ध रात,
 
है स्मरण कराती विगत बात,
 
वह प्रलय शांति वह कोलाहल,
 
जब अर्पित कर जीवन संबल,
 
 
मैं हुई तुम्हारी थी निश्छल,
 
क्या भूलूँ मैं, इतनी दुर्बल?
 
तब चलो जहाँ पर शांति प्रात,
 
मैं नित्य तुम्हारी, सत्य बात।
 
 
इस देव-द्वंद्व का वह प्रतीक-
 
मानव कर ले सब भूल ठीक,
 
यह विष जो फैला महा-विषम,
 
निज कर्मोन्नति से करते सम,
 
 
सब मुक्त बनें, काटेंगे भ्रम,
 
उनका रहस्य हो शुभ-संयम,
 
गिर जायेगा जो है अलीक,
 
चल कर मिटती है पडी लीक।"
 
 
वह शून्य असत या अंधकार,
 
अवकाश पटल का वार पार,
 
बाहर भीतर उन्मुक्त सघन,
 
था अचल महा नीला अंजन,
 
 
भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन,
 
थे निर्निमेष मनु के लोचन,
 
इतना अनंत था शून्य-सार,
 
दीखता न जिसके परे पार।
 
 
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