भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रोटियाँ / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatNazm}}
 
{{KKCatNazm}}
 
<poem>
 
<poem>
जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ
+
जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ
+
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ ।।
आँखें परीरुख़ों से लड़ाती हैं रोटियाँ
+
आँखें परीरुख़ों से लड़ाती हैं रोटियाँ
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ
+
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ ।।
 +
        जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।1।।
  
जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ
+
रोटी से जिनका नाक तलक पेट है भरा ।
 +
करता फिरे है क्या वह उछल-कूद जा बजा ।।
 +
दीवार फ़ाँद कर कोई कोठा उछल गया ।
 +
ठट्ठा हँसी शराब, सनम साक़ी, उस सिवा ।।
 +
        सौ-सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ ।।2।।
 +
 +
जिस जा पे हाँडी चूल्हा तवा और तनूर है ।
 +
ख़ालिक़ के कुदरतों का उसी जा ज़हूर है ।।
 +
चूल्हे के आगे आँच जो जलती हुज़ूर है ।
 +
जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है ।।
 +
        इस नूर के सबब नज़र आती हैं रोटियाँ ।।3।।
  
रोटी से जिस का नाक तलक पेट है भरा
+
आवे तवे तनूर का जिस जा ज़ुबाँ पे नाम ।
करता फिरे है क्या वो उछल कूद जा ब जा
+
या चक्की चूल्हे के जहाँ गुलज़ार हो तमाम ।।
दीवार फाँद कर कोई कोठा उछल गया
+
वां सर झुका के कीजे दण्डवत और सलाम ।
ठठ्ठा हँसी शराब सनम साक़ी इस सिवा
+
इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मुक़ाम ।।
 +
        पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियाँ ।।4।।
  
सौ सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ
+
इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर-पूर ।
 +
आटा नहीं है छलनी से छन-छन गिरे है नूर ।।
 +
पेड़ा हर एक उस का है बर्फ़ी या मोती चूर ।
 +
हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर ।।
 +
        इस आग को मगर यह बुझाती हैं रोटियाँ ।।5।।
  
जिस जा पे हाँडी चूल्हा तवा और तनूर है
+
पूछा किसी ने यह किसी कामिल फक़ीर से ।
ख़ालिक़ के कुदरतों का उसी जा ज़हूर है
+
ये मेह्र-ओ-माह हक़ ने बनाए हैं काहे के ।।
चूल्हे के आगे आँच जो जलती हज़ूर है
+
वो सुन के बोला, बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे ।
जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है
+
हम तो न चाँद समझें, न सूरज हैं जानते ।।
 +
        बाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ ।।6।।
  
इस नूर के सबब नज़र आती हैं रोटियाँ
+
फिर पूछा उस ने कहिए यह है दिल का नूर क्या ?
 +
इस के मुशाहिर्द में है ख़िलता ज़हूर क्या ?
 +
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या ?
 +
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-कुबूर क्या ?
 +
        जितने हैं कश्फ़ सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।7।।
  
आवे तवे तनूर का जिस जा ज़बां पे नाम
+
रोटी जब आई पेट में सौ कन्द घुल गए ।
या चक्की चूल्हे का जहाँ गुलज़ार हो तमाम
+
गुलज़ार फूले आँखों में और ऐश तुल गए ।।
वां सर झुका के कीजिये दंडवत और सलाम
+
दो तर निवाले पेट में जब आ के ढुल गए ।
इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मुक़ाम
+
चौदह तबक़ के जितने थे सब भेद खुल गए ।।
 +
        यह कश्फ़ यह कमाल दिखाती हैं रोटियाँ ।।8।।
  
पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियाँ
+
रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो ।
 +
मेले की सैर ख़्वाहिश-ए-बाग़-ओ-चमन न हो ।।
 +
भूके ग़रीब दिल की ख़ुदा से लगन न हो ।
 +
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो ।।
 +
        अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ ।।9।।
  
इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर पूर
+
अब जिनके आगे मालपूए भर के थाल हैं
आटा नहीं है छलनी से छन छन गिरे है नूर
+
पूरे भगत उन्हें कहो,  साहब के लाल हैं ।।
पेड़ा हर एक उस का है बर्फ़ी-ओ-मोती चूर
+
और जिन के आगे रोग़नी और शीरमाल हैं ।
हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर
+
आरिफ़ वही हैं और वही साहिब कमाल हैं ।।
 +
        पकी पकाई अब जिन्हें आती हैं रोटियाँ ।।10।।
  
इस आग को मगर ये बुझाती हैं रोटियाँ
+
कपड़े किसी के लाल हैं रोटी के वास्ते ।
 +
लम्बे किसी के बाल हैं रोटी के वास्ते ।।
 +
बाँधे कोई रुमाल है रोटी के वास्ते ।
 +
सब कश्फ़ और कमाल हैं रोटी के वास्ते ।।
 +
        जितने हैं रूप सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।11।।
  
पूछा किसी ने ये किसी कामिल फ़क़ीर से
+
रोटी से नाचे प्यादा क़वायद दिखा-दिखा ।
ये मेह्र-ओ-माह हक़ ने बनाये हैं काहे के
+
असवार नाचे घोड़े को कावा लगा-लगा ।।
वो सुन के बोला बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे
+
घुँघरू को बाँधे पैक भी फिरता है जा बजा ।
हम तो न चाँद समझे न सूरज हैं जानते
+
और इस के सिवा ग़ौर से देखो तो जा बजा ।।
 +
        सौ-सौ तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ ।।12।।
  
बाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ
 
 
फिर पूछा उस ने कहिये ये है दिल का नूर क्या
 
इस के मुशाहिदे में है खुलता ज़हूर क्या
 
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या
 
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-कुबूर क्या
 
 
कश्फ़=प्रदर्शन; क़ुलूब=हृदय
 
 
जितने हीं कश्फ़ सब ये दिखाती हैं रोटियाँ
 
 
रोटी जब आई पेट में सौ कन्द घुल गये
 
गुलज़ार फूले आँखों में और ऐश तुल गये
 
दो तर निवाले पेट में जब आ के धुल गये
 
चौदा तबक़ के जितने थे सब भेद खुल गये
 
 
ये कश्फ़ ये कमाल दिखाती हैं रोटियाँ
 
 
रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो
 
मेले की सैर ख़्वाहिश-ए-बाग़-ओ-चमन न हो
 
भूके ग़रीब दिल की ख़ुदा से लगन न हो
 
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो
 
 
अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ
 
 
अब जिन के आगे मालपूये भर के थाल हैं
 
पूरी भगत उन्हीं की वो साहब के लाल हैं
 
और जिन के आगे रौग़नी और शीरमाल है
 
आरिफ़ वोही हैं और वोही साहब कमाल हैं
 
 
पकी पकाई अब जिन्हें आती हैं रोटियाँ
 
 
कपड़े किसी के लाल हों रोटी के वास्ते
 
लम्बे किसी के बाल हैं रोटी के वास्ते
 
बाँधे कोई रुमाल है रोटी के वास्ते
 
सब कश्फ़ और कमाल हैं रोटी के वास्ते
 
 
जितने हैं रूप सब ये दिखाती हैं रोटियाँ
 
 
रोटी से नाचे पियादा क़वायद दिखा दिखा
 
असवार नाचे घोड़े को कावा लगा लगा
 
घुँघरू को बाँधे पैक भी फिरता है नाचता
 
और इस के सिवा ग़ौर से देखो तो जा ब जा
 
 
सौ सौ तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ
 
  
 
दुनिया में अब बदी न कहीं और निकोई है
 
दुनिया में अब बदी न कहीं और निकोई है

03:08, 8 जनवरी 2011 का अवतरण

जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ ।
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ ।।
आँखें परीरुख़ों से लड़ाती हैं रोटियाँ ।
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ ।।
         जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।1।।

रोटी से जिनका नाक तलक पेट है भरा ।
करता फिरे है क्या वह उछल-कूद जा बजा ।।
दीवार फ़ाँद कर कोई कोठा उछल गया ।
ठट्ठा हँसी शराब, सनम साक़ी, उस सिवा ।।
         सौ-सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ ।।2।।
 
जिस जा पे हाँडी चूल्हा तवा और तनूर है ।
ख़ालिक़ के कुदरतों का उसी जा ज़हूर है ।।
चूल्हे के आगे आँच जो जलती हुज़ूर है ।
जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है ।।
         इस नूर के सबब नज़र आती हैं रोटियाँ ।।3।।

आवे तवे तनूर का जिस जा ज़ुबाँ पे नाम ।
या चक्की चूल्हे के जहाँ गुलज़ार हो तमाम ।।
वां सर झुका के कीजे दण्डवत और सलाम ।
इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मुक़ाम ।।
         पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियाँ ।।4।।

इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर-पूर ।
आटा नहीं है छलनी से छन-छन गिरे है नूर ।।
पेड़ा हर एक उस का है बर्फ़ी या मोती चूर ।
हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर ।।
         इस आग को मगर यह बुझाती हैं रोटियाँ ।।5।।

पूछा किसी ने यह किसी कामिल फक़ीर से ।
ये मेह्र-ओ-माह हक़ ने बनाए हैं काहे के ।।
वो सुन के बोला, बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे ।
हम तो न चाँद समझें, न सूरज हैं जानते ।।
         बाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ ।।6।।

फिर पूछा उस ने कहिए यह है दिल का नूर क्या ?
इस के मुशाहिर्द में है ख़िलता ज़हूर क्या ?
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या ?
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-कुबूर क्या ?
         जितने हैं कश्फ़ सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।7।।

रोटी जब आई पेट में सौ कन्द घुल गए ।
गुलज़ार फूले आँखों में और ऐश तुल गए ।।
दो तर निवाले पेट में जब आ के ढुल गए ।
चौदह तबक़ के जितने थे सब भेद खुल गए ।।
         यह कश्फ़ यह कमाल दिखाती हैं रोटियाँ ।।8।।

रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो ।
मेले की सैर ख़्वाहिश-ए-बाग़-ओ-चमन न हो ।।
भूके ग़रीब दिल की ख़ुदा से लगन न हो ।
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो ।।
         अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ ।।9।।

अब जिनके आगे मालपूए भर के थाल हैं ।
पूरे भगत उन्हें कहो, साहब के लाल हैं ।।
और जिन के आगे रोग़नी और शीरमाल हैं ।
आरिफ़ वही हैं और वही साहिब कमाल हैं ।।
         पकी पकाई अब जिन्हें आती हैं रोटियाँ ।।10।।

कपड़े किसी के लाल हैं रोटी के वास्ते ।
लम्बे किसी के बाल हैं रोटी के वास्ते ।।
बाँधे कोई रुमाल है रोटी के वास्ते ।
सब कश्फ़ और कमाल हैं रोटी के वास्ते ।।
         जितने हैं रूप सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।11।।

रोटी से नाचे प्यादा क़वायद दिखा-दिखा ।
असवार नाचे घोड़े को कावा लगा-लगा ।।
घुँघरू को बाँधे पैक भी फिरता है जा बजा ।
और इस के सिवा ग़ौर से देखो तो जा बजा ।।
         सौ-सौ तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ ।।12।।


दुनिया में अब बदी न कहीं और निकोई है
न दुश्मनी व दोस्ती न तुन्द खोई है
कोई किसी का और किसी का न कोई है
सब कोई है उसी का कि जिस हाथ डोई है

नौकर नफ़र ग़ुलाम बनाती हैं रोटियाँ

रोटी का अब अज़ल से हमारा तो है ख़मीर
रूखी भी रोटी हक़ में हमारे है शहद-ओ-शीर
या पतली होवे मोटी ख़मीरी हो या कतीर
गेहूं जुआर बाजरे की जैसी हो ‘नज़ीर‘

हम को सब तरह की ख़ुश आती हैं रोटियाँ.