"भव का नव निर्माण करो हे ! / मनुज देपावत" के अवतरणों में अंतर
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भव का नव निर्माण करो हे ! | भव का नव निर्माण करो हे ! | ||
− | यद्यपि बदल चुकी हैं कुछ भौगोलिक सीमा | + | यद्यपि बदल चुकी हैं कुछ भौगोलिक सीमा रेखाएँ; |
पर घिरे हुए हो तुम अब भी इस घिसी व्यवस्था की बोदी लक्ष्मण लकीर से ! | पर घिरे हुए हो तुम अब भी इस घिसी व्यवस्था की बोदी लक्ष्मण लकीर से ! | ||
− | + | रुद्ध हो गया जीवन का अविकल प्रवाह तो; | |
− | और भर गया | + | और भर गया कीचड़ के लघु कृमि कीटों से गलित पुरातन संस्कृति का यह गन्दा पोखर ! |
− | और उड़ चले रजत -पंख के राजहंस तो , | + | और उड़ चले रजत-पंख के राजहंस तो , |
− | फिर भी जिसमें छप-छप करती बूढ़ी बतखें तैर रही | + | फिर भी जिसमें छप-छप करती बूढ़ी बतखें तैर रही हैं ! |
− | टर्राते हैं बचे खुचे कुछ दुर्बल दादुर! | + | टर्राते हैं बचे-खुचे कुछ दुर्बल दादुर ! |
− | इस पोखर के अवगाहन का मोह छोड़कर , | + | इस पोखर के अवगाहन का मोह छोड़कर, |
नवल सांस्कृतिक सिन्धु संतरण आज करो हे ! | नवल सांस्कृतिक सिन्धु संतरण आज करो हे ! | ||
नूतन निर्माण करो हे ! | नूतन निर्माण करो हे ! | ||
− | चर्वित -चर्वण रीति नीति की खा अफीम तुम ,ऊंघ रहे हो इस पीनक में ! | + | चर्वित-चर्वण रीति-नीति की खा अफीम तुम, ऊंघ रहे हो इस पीनक में ! |
− | इधर | + | इधर मृत्यु के महापुंज से नई ज़िंदगी जूझ रही है ! |
− | और | + | और गूँजते युग-निर्माता नए राग ये ! |
− | इन रागों में वार-वधू के नूपुर की | + | इन रागों में वार-वधू के नूपुर की झँकार नहीं है ! |
संघर्षण है ये तो शत शत संघर्षों के ! | संघर्षण है ये तो शत शत संघर्षों के ! | ||
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अरे तृषा की इन घड़ियों में कितने शंकर गरल पान कर रहे निरंतर ! | अरे तृषा की इन घड़ियों में कितने शंकर गरल पान कर रहे निरंतर ! | ||
− | लोक | + | लोक युद्ध की इस वेला में तुम भी मुक्ति प्रयाण करो हे ! |
भव का नव निर्माण करो हे ! | भव का नव निर्माण करो हे ! | ||
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12:10, 12 जनवरी 2011 का अवतरण
भव का नव निर्माण करो हे !
यद्यपि बदल चुकी हैं कुछ भौगोलिक सीमा रेखाएँ;
पर घिरे हुए हो तुम अब भी इस घिसी व्यवस्था की बोदी लक्ष्मण लकीर से !
रुद्ध हो गया जीवन का अविकल प्रवाह तो;
और भर गया कीचड़ के लघु कृमि कीटों से गलित पुरातन संस्कृति का यह गन्दा पोखर !
और उड़ चले रजत-पंख के राजहंस तो ,
फिर भी जिसमें छप-छप करती बूढ़ी बतखें तैर रही हैं !
टर्राते हैं बचे-खुचे कुछ दुर्बल दादुर !
इस पोखर के अवगाहन का मोह छोड़कर,
नवल सांस्कृतिक सिन्धु संतरण आज करो हे !
नूतन निर्माण करो हे !
चर्वित-चर्वण रीति-नीति की खा अफीम तुम, ऊंघ रहे हो इस पीनक में !
इधर मृत्यु के महापुंज से नई ज़िंदगी जूझ रही है !
और गूँजते युग-निर्माता नए राग ये !
इन रागों में वार-वधू के नूपुर की झँकार नहीं है !
संघर्षण है ये तो शत शत संघर्षों के !
और खुल रहे मनुज-मुक्ति की नगरी के फिर सिंह-द्वार भी !
बदल रहे विश्वास पुराने !
अरे तृषा की इन घड़ियों में कितने शंकर गरल पान कर रहे निरंतर !
लोक युद्ध की इस वेला में तुम भी मुक्ति प्रयाण करो हे !
भव का नव निर्माण करो हे !