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"यह महाशून्य का शिविर / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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रूपों में एक अरूप सदा खिलता है, | रूपों में एक अरूप सदा खिलता है, | ||
गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय, | गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय, | ||
− | अनुभव | + | अनुभव में एक अतीन्द्रिय, |
पुरुषों के हर वैभव में ओझल | पुरुषों के हर वैभव में ओझल | ||
अपौरुषेय मिलता है । | अपौरुषेय मिलता है । | ||
− | मैं एक, शिविर का | + | मैं एक, शिविर का प्रहरी, भोर जगा |
अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ : | अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ : | ||
मैं, मौन-मुखर, सब छंदों में | मैं, मौन-मुखर, सब छंदों में |
16:02, 3 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
यह महाशून्य का शिविर,
असीम, छा रहा ऊपर :
नीचे यह महामौन की सरिता
दिग्विहीन बहती है ।
यह बीच-अधर, मन रहा टटोल
प्रतीकों की परिभाषा
आत्मा में जो अपने ही से
खुलती रहती है ।
रूपों में एक अरूप सदा खिलता है,
गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय,
अनुभव में एक अतीन्द्रिय,
पुरुषों के हर वैभव में ओझल
अपौरुषेय मिलता है ।
मैं एक, शिविर का प्रहरी, भोर जगा
अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ :
मैं, मौन-मुखर, सब छंदों में
उस एक निर्वच, छ्म्द-मुक्त को
गाता हूँ ।