"मुझे सोचने दे / साहिर लुधियानवी" के अवतरणों में अंतर
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अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना| | अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना| | ||
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− | लेकिन इस दर्दो-गमो- | + | लेकिन इस दर्दो-गमो-ज़ब्र की वुसअत को तो देख, |
जुल्म की छाँव में दम तोड़ती खलकत को तो देख, | जुल्म की छाँव में दम तोड़ती खलकत को तो देख, | ||
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जलसा-गाहों में ये दहशतज़दा सहमे अम्बोह, | जलसा-गाहों में ये दहशतज़दा सहमे अम्बोह, | ||
− | रहगुज़ारों पे | + | रहगुज़ारों पे फलाकतज़दा लोगो के गिरोह| |
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− | हर तरफ आतिशो-आहन का ये सैलाबे- | + | हर तरफ आतिशो-आहन का ये सैलाबे-अजीम, |
नित नए तर्ज़ पे होती हुई दुनिया तकसीम| | नित नए तर्ज़ पे होती हुई दुनिया तकसीम| |
16:32, 6 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़,
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना|
जिन्दगी तल्ख़ सही, जहर सही, सम ही सही,
दर्दो-आजार सही, ज़ब्र सही, गम ही सही|
लेकिन इस दर्दो-गमो-ज़ब्र की वुसअत को तो देख,
जुल्म की छाँव में दम तोड़ती खलकत को तो देख,
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना,
मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़
जलसा-गाहों में ये दहशतज़दा सहमे अम्बोह,
रहगुज़ारों पे फलाकतज़दा लोगो के गिरोह|
भूख और प्यास से पजमुर्दा सियहफाम ज़मीं,
तीरा-ओ-तार मकां मुफलिसों-बीमार मकीं|
नौ-ए-इंसान में ये सरमाया-ओ-मेहनत का तज़ाद,
अम्नो-तहजीब के परचम तले कौमों का फसाद|
हर तरफ आतिशो-आहन का ये सैलाबे-अजीम,
नित नए तर्ज़ पे होती हुई दुनिया तकसीम|
लहलहाते हुए खेतों पे जबानी का समाँ
और दहकान के छप्पर में न बत्ती न धुवां|
ये फलक-बोस मिलें दिलकशीं-सीली बाज़ार,
ये गलाज़त पे झपटते गुए भूखे नादार|
दूर साहिल पे वो शफ्फाक मकानों की कतार,
सरसराते हुए पर्दों में सिमटते गुलज़ार|
दरो-दीवार पे अनवार का सैलाबे-रवां,
जैसे एक शायरे मदहोश के ख़्वाबों का जहां|
ये सभी क्यों है? ये क्या है? मुझे कुछ सोचने दे,
कौन इंसान का खुदा है? मुझे कुछ सोचने दे|
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सूना|
मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़||