"कुछ देर के लिए / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर
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सोचता हुआ कविता की ज़रूरत किसे है | सोचता हुआ कविता की ज़रूरत किसे है |
22:10, 29 दिसम्बर 2007 का अवतरण
कुछ देर के लिए मैं कवि था
फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ
सोचता हुआ कविता की ज़रूरत किसे है
कुछ देर पिता था
अपने बच्चों के लिए
ज़्यादा सरल शब्दों की खोज करता हुआ
कभी अपने पिता की नक़ल था
कभी सिर्फ़ अपने पुरखों की परछाईं
कुछ देर नौकर था सतर्क सहमा हुआ
बची रहे रोज़ी-रोटी कहता हुआ
कुछ देर मैंने अन्याय का विरोध किया
फिर उसे सहने की ताक़त जुटाता रहा
मैंने सोचा मैं इन शब्दों को नहीं लिखूँगा
जिनमें मेरी आत्मा नहीं है जो आतताइयों के हैं
और जिनसे ख़ून जैसा टपकता है
कुछ देर मैं एक छोटे से गड्ढे में गिरा रहा
यही मेरा मानवीय पतन था
मैंने देखा मैं बचा हुआ हूँ और साँस
ले रहा हूँ और मैं क्रूरता नहीं करता
बल्कि जो निर्भय होकर क्रूरता किए जाते हैं
उनके विरूद्ध मेरी घॄणा बची हुई है यह काफ़ी है
बचे खुचे समय के बारे में मेरा ख़्याल था
मनुष्य को छह या सात घन्टे सोना चाहिए
सुबह मैं जागा तो यह
एक जानी पहचानी भयानक दुनिया में
फिर से जन्म लेना था
यह सोचा मैंने कुछ देर तक
(1992)