"कुछ देर के लिए / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर
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कुछ देर के लिए मैं कवि था | कुछ देर के लिए मैं कवि था | ||
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फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ | फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ | ||
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सोचता हुआ कविता की ज़रूरत किसे है | सोचता हुआ कविता की ज़रूरत किसे है | ||
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कुछ देर पिता था | कुछ देर पिता था | ||
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अपने बच्चों के लिए | अपने बच्चों के लिए | ||
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ज़्यादा सरल शब्दों की खोज करता हुआ | ज़्यादा सरल शब्दों की खोज करता हुआ | ||
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कभी अपने पिता की नक़ल था | कभी अपने पिता की नक़ल था | ||
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कभी सिर्फ़ अपने पुरखों की परछाईं | कभी सिर्फ़ अपने पुरखों की परछाईं | ||
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कुछ देर नौकर था सतर्क सहमा हुआ | कुछ देर नौकर था सतर्क सहमा हुआ | ||
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बची रहे रोज़ी-रोटी कहता हुआ | बची रहे रोज़ी-रोटी कहता हुआ | ||
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कुछ देर मैंने अन्याय का विरोध किया | कुछ देर मैंने अन्याय का विरोध किया | ||
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फिर उसे सहने की ताक़त जुटाता रहा | फिर उसे सहने की ताक़त जुटाता रहा | ||
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मैंने सोचा मैं इन शब्दों को नहीं लिखूँगा | मैंने सोचा मैं इन शब्दों को नहीं लिखूँगा | ||
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जिनमें मेरी आत्मा नहीं है जो आतताइयों के हैं | जिनमें मेरी आत्मा नहीं है जो आतताइयों के हैं | ||
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और जिनसे ख़ून जैसा टपकता है | और जिनसे ख़ून जैसा टपकता है | ||
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कुछ देर मैं एक छोटे से गड्ढे में गिरा रहा | कुछ देर मैं एक छोटे से गड्ढे में गिरा रहा | ||
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यही मेरा मानवीय पतन था | यही मेरा मानवीय पतन था | ||
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मैंने देखा मैं बचा हुआ हूँ और साँस | मैंने देखा मैं बचा हुआ हूँ और साँस | ||
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ले रहा हूँ और मैं क्रूरता नहीं करता | ले रहा हूँ और मैं क्रूरता नहीं करता | ||
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बल्कि जो निर्भय होकर क्रूरता किए जाते हैं | बल्कि जो निर्भय होकर क्रूरता किए जाते हैं | ||
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उनके विरूद्ध मेरी घॄणा बची हुई है यह काफ़ी है | उनके विरूद्ध मेरी घॄणा बची हुई है यह काफ़ी है | ||
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बचे खुचे समय के बारे में मेरा ख़्याल था | बचे खुचे समय के बारे में मेरा ख़्याल था | ||
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मनुष्य को छह या सात घन्टे सोना चाहिए | मनुष्य को छह या सात घन्टे सोना चाहिए | ||
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सुबह मैं जागा तो यह | सुबह मैं जागा तो यह | ||
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एक जानी पहचानी भयानक दुनिया में | एक जानी पहचानी भयानक दुनिया में | ||
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फिर से जन्म लेना था | फिर से जन्म लेना था | ||
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यह सोचा मैंने कुछ देर तक | यह सोचा मैंने कुछ देर तक | ||
− | + | '''रचनाकाल : 1992''' | |
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19:40, 11 मई 2010 के समय का अवतरण
कुछ देर के लिए मैं कवि था
फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ
सोचता हुआ कविता की ज़रूरत किसे है
कुछ देर पिता था
अपने बच्चों के लिए
ज़्यादा सरल शब्दों की खोज करता हुआ
कभी अपने पिता की नक़ल था
कभी सिर्फ़ अपने पुरखों की परछाईं
कुछ देर नौकर था सतर्क सहमा हुआ
बची रहे रोज़ी-रोटी कहता हुआ
कुछ देर मैंने अन्याय का विरोध किया
फिर उसे सहने की ताक़त जुटाता रहा
मैंने सोचा मैं इन शब्दों को नहीं लिखूँगा
जिनमें मेरी आत्मा नहीं है जो आतताइयों के हैं
और जिनसे ख़ून जैसा टपकता है
कुछ देर मैं एक छोटे से गड्ढे में गिरा रहा
यही मेरा मानवीय पतन था
मैंने देखा मैं बचा हुआ हूँ और साँस
ले रहा हूँ और मैं क्रूरता नहीं करता
बल्कि जो निर्भय होकर क्रूरता किए जाते हैं
उनके विरूद्ध मेरी घॄणा बची हुई है यह काफ़ी है
बचे खुचे समय के बारे में मेरा ख़्याल था
मनुष्य को छह या सात घन्टे सोना चाहिए
सुबह मैं जागा तो यह
एक जानी पहचानी भयानक दुनिया में
फिर से जन्म लेना था
यह सोचा मैंने कुछ देर तक
रचनाकाल : 1992