"ताण्डव / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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::::नाचो, हे नाचो, नटवर ! | ::::नाचो, हे नाचो, नटवर ! | ||
::सुन शृंगी-निर्घोष पुरातन, | ::सुन शृंगी-निर्घोष पुरातन, | ||
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::विस्फारित लख काल-नेत्र फिर | ::विस्फारित लख काल-नेत्र फिर | ||
::काँपे त्रस्त अतनु मन-ही-मन । | ::काँपे त्रस्त अतनु मन-ही-मन । | ||
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::घहरें प्रलय-पयोद गगन में, | ::घहरें प्रलय-पयोद गगन में, | ||
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::बरसे आग, बहे झंझानिल, | ::बरसे आग, बहे झंझानिल, | ||
::मचे त्राहि जग के आँगन में, | ::मचे त्राहि जग के आँगन में, | ||
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::प्रभु ! तब पावन नील गगन-तल, | ::प्रभु ! तब पावन नील गगन-तल, | ||
::विदलित अमित निरीह-निबल-दल, | ::विदलित अमित निरीह-निबल-दल, | ||
− | ::मिटे राष्ट्र, | + | ::मिटे राष्ट्र, उजड़े दरिद्र-जन |
::आह ! सभ्यता आज कर रही | ::आह ! सभ्यता आज कर रही | ||
::असहायों का शोणित-शोषण। | ::असहायों का शोणित-शोषण। |
22:19, 15 जनवरी 2020 का अवतरण
तांडव
नाचो, हे नाचो, नटवर !
चन्द्रचूड़ ! त्रिनयन ! गंगाधर ! आदि-प्रलय ! अवढर ! शंकर!
नाचो, हे नाचो, नटवर !
आदि लास, अविगत, अनादि स्वन,
अमर नृत्य - गति, ताल चिरन्तन,
अंगभंग, हुंकृति-झंकृति कर थिरको हे विश्वम्भर !
नाचो, हे नाचो, नटवर !
सुन शृंगी-निर्घोष पुरातन,
उठे सृष्टि-हृद में नव-स्पन्दन,
विस्फारित लख काल-नेत्र फिर
काँपे त्रस्त अतनु मन-ही-मन ।
स्वर-खरभर संसार, ध्वनित हो नगपति का कैलास-शिखर ।
नाचो, हे नाचो, नटवर !
नचे तीव्रगति भूमि कील पर,
अट्टहास कर उठें धराधर,
उपटे अनल, फटे ज्वालामुख,
गरजे उथल-पुथल कर सागर ।
गिरे दुर्ग जड़ता का, ऐसा प्रलय बुला दो प्रलयंकर !
नाचो, हे नाचो, नटवर !
घहरें प्रलय-पयोद गगन में,
अन्ध-धूम्र हो व्याप्त भुवन में,
बरसे आग, बहे झंझानिल,
मचे त्राहि जग के आँगन में,
फटे अतल पाताल, धँसे जग, उछल-उछल कूदें भूधर।
नाचो, हे नाचो, नटवर !
प्रभु ! तब पावन नील गगन-तल,
विदलित अमित निरीह-निबल-दल,
मिटे राष्ट्र, उजड़े दरिद्र-जन
आह ! सभ्यता आज कर रही
असहायों का शोणित-शोषण।
पूछो, साक्ष्य भरेंगे निश्चय, नभ के ग्रह-नक्षत्र-निकर !
नाचो, हे नाचो, नटवर !
नाचो, अग्निखंड भर स्वर में,
फूंक-फूंक ज्वाला अम्बर में,
अनिल-कोष, द्रुम-दल, जल-थल में,
अभय विश्व के उर-अन्तर में,
गिरे विभव का दर्प चूर्ण हो,
लगे आग इस आडम्बर में,
वैभव के उच्चाभिमान में,
अहंकार के उच्च शिखर में,
स्वामिन्, अन्धड़-आग बुला दो,
जले पाप जग का क्षण-भर में।
डिम-डिम डमरु बजा निज कर में
नाचो, नयन तृतीय तरेरे!
ओर-छोर तक सृष्टि भस्म हो
चिता-भूमि बन जाय अरेरे !
रच दो फिर से इसे विधाता, तुम शिव, सत्य और सुन्दर !
नाचो, हे नाचो, नटवर !
दिसम्बर १९३२