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विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 1

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'''पद 1 से 10 तक'''
(1)
गाइये गनपति जगबंदन। संकर सुवन भवानी नंदन।1।
तुलसिदास प्रभु! हरहु भेद-मति।।
(8)
 
श्री देव बड़े , दाता बड़े ,संकर बड़े भोरे।
किये दूर दुख सबनिके, जिन्ह- जिन्ह कर जोरे।।
सेवा, सुमिरन, पूजिबौ, पात आखत थोरे।
दिये जगत जहँ लगि सबै, सुख, गज ,रथ, घोरे।।
गाँव बसत बामदेव, में कबहूँ न निहोरे।
अधिभौतिक बाधा भई , ते किंकर तोरे।।
बेगि बोलि बालि बरजिये, करतूति कठोरे ।
तुलसिदास-दलि रूँध्यो चहैं सठ सांखि सिहोरे।।।
(9)
 
श्री सिव ! सिव! ळोइ प्रसन्न करू दाया।
करूनामय उदार कीरति, बलि जाउँ हरहु निज माया।।
जलज-नयन, गुन-अयन, मयन-रिपु, महिमा जान न कोई।
बिनु तव कृपा राम-पद-पंकज, सपनेहुँ भगति न होई। ।
रिषय, सिद्ध, मुनि, मनुज, दनुज, सुर, अपर जीव जग माहीं।
तव पद बिमुख न पार पाव कोउ, कलाप कोटि चलि जाहीें।।
अहिभूषन दूषन-रिपु सेवक, देव -देव,त्रिपुरारी।
मोह-निहार- दिवाकर संकर, सरन सोक-भयहारी।।
गिरिजा-मन - मानस -मराल, कासीस, मसान-निवासी।
तुलसिदास हरि-चरन-कमल-बर, देहु भगति अबिनासी।।
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