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− | '''पद 1 से 10 तक'''
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− | (1)
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− | गाइये गनपति जगबंदन। संकर सुवन भवानी नंदन।1।
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− | सिद्धि- सदन, गज बदन, बिनायक। कृपा सिंधु, सुंदर, सब लायक।2।
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− | मोदक-प्रिय , मुद मंगल-दाता। बिद्या-बारिधि, बुद्धि-बिधाता।3।
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− | मांगत तुलसिदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे।4।
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− | (2)
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− | दीन दयालु दिवाकर देवा। कर मुनि, मनुज, सुरासुर सेवा।।1
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− | हिम तम-करि-केहरि करमाली। दहन दोष दुख दुरित रूजाली।2।
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− | कोक कोकनद लोक प्रकासी। तेज प्रताप रूप् रस-रासी।3।
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− | सारथि-पंगु, दिब्य रथ गामी। हरि संकर बिधि मूरति स्वामी।4।
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− | बेद पुरान प्रगट जस जागै। तुलसी राम-भगति बर मांगै।5।
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− | (3)
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− | को जांचिये संभु तजि आन।
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− | दीनदयालु भगत-आरति-हर, सब प्रकार समरथ भगवान।।1।।
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− | कालकूट जुर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये बिषपान।
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− | दारून दनुज, जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान।।2।।
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− | जो गति अगम महामुनि दर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान।
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− | सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान।3।
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− | सेवत सुलभ, उदार कलपतरू, पारबती-पति परम सुजान।
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− | देहु काम-रिपु राम-चरन-रति, तुलसिदास कहँ कृपानिधान।4।
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− | (4)
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− | दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।
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− | दीन-दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं।1।
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− | मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं।
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− | ता ठाकुरकौ रिझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं।2।
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− | जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं।
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− | बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं।3।
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− | ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं।
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− | तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं।4।
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− | (5)
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− | बावरो रावरो नाह भवानी।
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− | दानि बडो दिन दये बिनु, बेद-बड़ाई भानी।1।
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− | निज घरकी बरबात बिलाकहु, हौ तुम परम सयानी।
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− | सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी।।
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− | जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी।
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− | तिन रंकनकौ नाक सँवारत, हौं आयो नकबानी।।
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− | दुख-दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी।
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− | यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भाीख भली मैं जानी।।
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− | प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत, सुति बिधिकी बर बानी।।
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− | तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगतु-मातु मुसकानी।।
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− | (6)
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− | जँाचिये गिरिजापति कासी।
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− | जासु भवन अनिमादिक दासी।।
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− | औढर-दानि द्रवत पुनि थोरें।
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− | सकत न देखि दीन कर जोरें।।
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− | सुख-संपति, मति-सुगति, सुहाई।
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− | सकल सुलभ संकर-सेवकाई।।
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− | गये सरन आरतिकै लीन्हें।
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− | निरखि निहाल निमिषमहँ कीन्हें।।
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− | तुलसिदास -जातक जस गावैं।
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− | बिमल भगति रघुपतिकी पावै।
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− | (7)
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− | क्कस न दीनपर द्रवहु उमाबर।
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− | दारून बिपति हरन करूनाकर।।
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− | बेद-पुरान कहत उदार हर।
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− | हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर।।
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− | कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज।
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− | होइ प्रसन्न दिन्हेहु सिव पद निज।।
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− | जो गति अगम महामुनि गावहिं।
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− | तव पुर कीट पतंगहु पावहिं।।
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− | देहु काम-रिपु!राम-चरन-रति।
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− | तुलसिदास प्रभु! हरहु भेद-मति।।
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− | (8)
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− | श्री देव बड़े , दाता बड़े ,संकर बड़े भोरे।
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− | किये दूर दुख सबनिके, जिन्ह- जिन्ह कर जोरे।।
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− | सेवा, सुमिरन, पूजिबौ, पात आखत थोरे।
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− | दिये जगत जहँ लगि सबै, सुख, गज ,रथ, घोरे।।
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− | गाँव बसत बामदेव, में कबहूँ न निहोरे।
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− | अधिभौतिक बाधा भई , ते किंकर तोरे।।
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− | बेगि बोलि बालि बरजिये, करतूति कठोरे ।
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− | तुलसिदास-दलि रूँध्यो चहैं सठ सांखि सिहोरे।।।
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− | (9)
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− | श्री सिव ! सिव! ळोइ प्रसन्न करू दाया।
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− | करूनामय उदार कीरति, बलि जाउँ हरहु निज माया।।
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− | जलज-नयन, गुन-अयन, मयन-रिपु, महिमा जान न कोई।
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− | बिनु तव कृपा राम-पद-पंकज, सपनेहुँ भगति न होई। ।
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− | रिषय, सिद्ध, मुनि, मनुज, दनुज, सुर, अपर जीव जग माहीं।
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− | तव पद बिमुख न पार पाव कोउ, कलाप कोटि चलि जाहीें।।
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− | अहिभूषन दूषन-रिपु सेवक, देव -देव,त्रिपुरारी।
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− | मोह-निहार- दिवाकर संकर, सरन सोक-भयहारी।।
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− | गिरिजा-मन - मानस -मराल, कासीस, मसान-निवासी।
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− | तुलसिदास हरि-चरन-कमल-बर, देहु भगति अबिनासी।।
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− | | + | |
− | (10)
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− | देव
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− | मोह-तम-तरणि, हर, रूद्र, शंकर, शरण, हरण-मम शोक, लोकाभिरामं।
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− | बाल-शशि-भाल, सुविशाल लोचन-कमल, काम-सतकोटि-लावण्य-धामं।ं
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− | कंबं-कुंदंेदु-कर्पूा -विग्रह रूचिर, तरूण-रवि-कोटि तनु तेज भ्राजै।
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− | भस्म सर्वांग अर्धांग शैलत्मजा, व्याल-नृकपाल-माला विराजै।।
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− | मौलिसंकुल जटा-मुकुट विद्युच्छटा, तटिनि-वर-वारि हरि -चरण-पूतं।
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− | श्रवण कुंडल गरल कंठ, करूणाकंद, सच्चिदानंद वंदेऽवधूतं।।
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− | शूल-शायक, पिनाकासि-कर, शत्रु-वन-दहन इव धूमघ्वज, वृषभ-यानं।
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− | व्याघ्र-गज-चर्म परिधान, विज्ञान-घन, सिद्ध-सुर-मुनि-मनुज-सेव्यमानं।।
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− | तांडवित-नृत्यपर,डमरू डिंडिम प्रवर, अशुभ इव भाति कल्याणराशी।
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− | महाकल्पांत ब्रह्मांड-मंडल-दवन, भवन कैलास, आसीन काशी।।
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− | तज्ञ, सर्वज्ञ, यज्ञेश, अच्युत, विभो, विश्व भवदंशसंभव पुरारी।
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− | ब्रह्मेंन्द्र, चंद्रार्क, वरूणाग्नि, वसु मरूत,यम, अर्चि भवदंघ्रि सर्वाधिकारी।।
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− | अकल,निरूपाधि, निर्गुण , निरंजन, ब्रह्म, कर्म-पथमेकमज निर्विकारं।
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− | अखिलविग्रह, उग्ररूप, शिव, भूपसुर, सर्वगत, शर्व , सर्वोपकारं।।
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− | ज्ञान-वैराग्य, धन-धर्म, कैवल्य-सुख, सुभग सौभाग्य शिव! सानुकूलं।
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− | तदपि नरमूढ आरूढ संसार-पथ, भृमत भव, विमुख तव पादमूलं।।
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− | नष्टमति, दुष्ट अति , कष्ट-रत, खेद-गत, दास तुलसी शंभु-शरण आया।
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− | देहि कामारि! श्रीराम-पद-पंकजे भक्ति अनवरत गत-भेद-माया।।
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