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"शिव स्तुति(राग धनाश्री)/ तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
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22:07, 17 मई 2011 के समय का अवतरण
विनय पत्रिकाविनयावली के इस संस्करण में वर्तनी (Spellings) की त्रुटियाँ होने का अनुमान है। अत: इसे प्रूफ़ रीडिंग की आवश्यकता है। यदि आप कोई त्रुटि पाते हैं तो कृपया गीता प्रेस को मानक मान कर उसे संपादित कर दें। गीताप्रेस की साइट का पता है http://www.gitapress.org |
शिव स्तुति (राग धनाश्री)
दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।
दीन-दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं।1।
मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं।
ता ठाकुरकौ रिझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं।2।
जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं।
बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं।3।
ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं।
तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं।4।
(जारी)