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<poem>
यहाँ तक आये आए थे रातों -रात चलने वाले
यहाँ रुक कर आग जलाई उन्होंने
ठिठुरती हवा में
सपनों की जगह
काँपती रहीं थी आँखों में
बेहद खराब यात्राएं ख़राब यात्राएँ आने वाले कल की
समय की तरह
कितनी गुनगुनी थी पलभर की नींद
भयावह अंधड़ों की आशंका के बीच
बिखर गये गए थे जो पेचीदा सुराग
खोज रहे हम तन्मय
पद्चिन्ह और अनाज के छिलके
जहाँ गहरा हो गया है मिट्टी का रंग ज़रा
रातों -रात चलने वाले नहीं रुकते
कहीं भी कुछ लिख छोड़ने की नीयत से
तो भी क्या -कुछ पढ़ने की कोशिश करते
हर पड़ाव पर
हम जैसे कितने ही सिरफिरे !
छितकुल, जुलाई 2006
</poem>