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"कुण समझाग्यो / रावत सारस्वत" के अवतरणों में अंतर

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<poem>कुण समझाग्यो मनैं ओ मरम
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कै राजनीत रा अजगरां सूं लेय’र
 
कै राजनीत रा अजगरां सूं लेय’र
 
दफ्तरां रा कमटाळू घूसखाऊ बाबुआं तकात
 
दफ्तरां रा कमटाळू घूसखाऊ बाबुआं तकात

05:12, 19 मई 2011 का अवतरण

कुण समझाग्यो मनैं ओ मरम
कै राजनीत रा अजगरां सूं लेय’र
दफ्तरां रा कमटाळू घूसखाऊ बाबुआं तकात
सगळां रा कांसां बाटकां में नित परूसीजै
रिकसो खींचतै म्हारै बूढ़ै बाप री
थाकल फींचां रो खून-पसानो
कमठाणै भाठा फोड़ती
कै तगारी ले तिमंजलै चढ़ती-उतरती
म्हारी हेजल भा रा हांचळां रो सूखतो दूध
अर नानड़ियै नैं बोबै री ठोड गूंठो चुंघाती
म्हारी बैन रा झरता आंसू अर कसकतो काळजो।

कुण समझाग्यो मनैं
गरीबी हटाओ रा भासणां रो
तर-तर खुलतो ओ भेद
ज्यूं झालर बाजतां अर संख फूंकीजता पाण
आपै ही उठता पग ठाकुरद्वारै कानी
अर साध पूरण रा सुपनां में
डोलरहींडै चढ़तो-उतरतो मुरझायो मन,
त्यूं ही तीस-तीस बरसां तक
आये पांचवैं साल
खोखां में घालता गया सुपनां रा पुरजिया
अर उडीकता गया अंधारै में आखड़ता
उण झीणै परगास री गुमसुदा किरण।
ओजूं घूमड़ै है बादळा आज
ओजूं ऊकळै है अमूझो
कीड़्यां रै पांखां ओजूं निकळण लागगी है
व्यापगो है रिंधरोही में भींभरियां रो भरणाट
उड़ता बधाऊड़ा देवण लाग्या है कसूण
पण ऐ मंडाण मंगळ मेघ रा नीं है भायां
सत्यानासी है अकाळ री आ बरखा
धान री ढिगलियां ढाती
छान-झूंपड़ा उजाड़ती
थोथा भरमां में पाळती
एकर फेर पंच-बरसी नींद ज्यूं औसरसी।
इन्दर रै घर राणी बण बैठी
आ महामाया
ओजूं फूंकसी थारा कानां में
'गरीबी हटाओ’ रो गुपत ग्यान
अर थे समझता हुयां भी
फेर बण जाओला अणजाण
फेर दूध रै भोळै
पी जावोला घोळ्योड़ो चून
क्यूंकै गरीबी में रैणो थारी नियति है।