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"शिकवा / इक़बाल" के अवतरणों में अंतर

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क्यूं ज़ियाकार बनूं, सूद फ़रामोश रहूँ
 
क्यूं ज़ियाकार बनूं, सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फर्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
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फ़िक्र-ए-फर्दा न करूँ, महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
 
नाले बुल-बुल की सुनूँ और हमअतंगोश रहूँ
 
नाले बुल-बुल की सुनूँ और हमअतंगोश रहूँ
हमनवीं मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।
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हमनवां मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।
  
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मज़ूर हैं हम
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जुरत-आमोज़ मेरी ताब-ए-सुख़न है मुझको
नाला आता है  
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शिकवा अल्लाह से ख़ाकम
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है बजा शेवा तसलीम में कि मशहूर हैं हम
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क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मज़बूर हैं हम
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साजें खामोश हैं, फ़रियाद से मामूर हैं हम
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नाला आता है अगर लब पे तो माज़ूर हैं हम
  
 
ऐ खुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
 
ऐ खुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
कूगर-ए-हम्थोज़ से ड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।
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ख़ूगर-ए-हम्ज़ से ड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।
  
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थी तो मौज़ूद अज़ल से ही तेरी जात-ए-कदील
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फूल था ज़ेर-ए-चमन, पर न परेशान थी
 
शर्त-ए-इंसाप है ऐ साहब-ए-अल्ताफ़-ए-हमीं ।
 
शर्त-ए-इंसाप है ऐ साहब-ए-अल्ताफ़-ए-हमीं ।
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बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती नसीम ।
  
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वरना उम्मत तेरी महबूब की दीवानी थी
  
 
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजर
 
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजर
कहीं थे मस्जूद ते पत्थर, कहीं ...
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कहीं थे मस्जूद ते पत्थर, कहीं माबूद शज़र
 
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कूगर-ए-पैकर-ए-महसूद थे इंसा की नज़र
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मानता फ़िर अनदेखे खुदा को कोई क्यूंकर
 
तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा
 
तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा
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कुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लमु ने किया काम तेरा
  
 
बस रहे थे यहीं सल्जूक भी, तूरानी भी
 
बस रहे थे यहीं सल्जूक भी, तूरानी भी
अहल-ए-चीन  चीन में, ईरान में ईरानी भी
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अहल-ए-चीन  चीन में, ईरान में सासानी भी
इसी मामूरे में बस रहे थे यूनानी भी
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इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी
इसी दुनिया में यहूदी भी थी, सासानी भी
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इसी दुनिया में यहूदी भी थी, नसरानी भी
पर तेरे नमाम पर तलवार उढाई किसने
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पर तेरे नाम पर तलवार उठाई किसने
 
बात जो बिगड़ी हुई थी बनाई किसने  
 
बात जो बिगड़ी हुई थी बनाई किसने  
  
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थे हमीं एक तेरे मा के आराओं में
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खुश्कियों में लड़ते कभी, कभी दरियाओं में
 
दी अज़ाने कभी यूरोप के कलीशाओं में
 
दी अज़ाने कभी यूरोप के कलीशाओं में
कभी अफ़्रीक़ा के तपत सेहराओं में ।
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कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सेहराओं में ।
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शान न जँचती थी
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कलेमा पढ़ते थे हमछांव में तलवारों की
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हम जो जीते तो जंगों की मुसीमत के लिए
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और लड़ते थे तेरी
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सर बकफ़ फिरते थे क्या दौलत के लिए
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बुत फरोशी के बुत-शिकनी क्यों करती
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टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे
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तुझ से हर कश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे
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तेग क्या चीज है हम तोप से लड़ जाते थे ।
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तू ही कह दे, उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर किसने
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शहर कैसर का जो था, उसको तोड़ा किसने
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किसने ठंडा किया आतिशकदा-ए-ईरान को ।
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किसने फिर ज़िन्दा किया
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कौन सी क़ौम फ़क़त तेरी तलबगार हुई
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किसकी
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किसकी शमशीर जहाँगीर
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किसकी हैमत से सनम सहमे हुए रहते थे
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मुँह के बल गिरके हु अल्लाह-ओ-अहद कहते थे
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आ गया ऐन लड़ाई अगर-वक़्त-ए-नमाज़
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एक ही खड़े हो गए
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न कोई बन्दा रहा, न कोई बन्दा नवाज़
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तेरी सरकारा में पहुँचे तो सभी एक हुए
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तौहीद को लेकर सिफ़त-ए-शाम फिरे
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कोह-में
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और मालूम है तुझको कभी नाकाम फिरे
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दश्त-तो-दश्त हैं,
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दोर-ए-अंसा को ग़ुलामी के छुड़ाया हमने
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तेरे काबों को जबीनों पे बसाया हमने
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फिर भी हमसे घ़िला है कि वफ़ादार नहीं
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हम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहीं
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उम्मतें और भी है, उनमें गुनहगार भी है
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इनमें काहिल भी है
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बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर
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बुत सनमख़ानों में कहते के मुसलमान गए
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है खुशी उनको कि काबे के निगहबान गए
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एहसासा तुझे है कि नहीं
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अपना तौहीद का कुछ फाज तुझे है कि नहीं
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ये शियाकत नहीं के हैं उनके ख़ज़ाने
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नहीं महफिल में जिन्हें बात भी करवने का अउर
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बात ये क्या है कि पहली सी
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तेरी कुदरत तो है वो कि जिसकी न हद है न
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20:13, 6 जून 2011 का अवतरण

टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने मुस्लिमों के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।


क्यूं ज़ियाकार बनूं, सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फर्दा न करूँ, महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुल-बुल की सुनूँ और हमअतंगोश रहूँ
हमनवां मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।

जुरत-आमोज़ मेरी ताब-ए-सुख़न है मुझको
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम
है बजा शेवा तसलीम में कि मशहूर हैं हम
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मज़बूर हैं हम
साजें खामोश हैं, फ़रियाद से मामूर हैं हम
नाला आता है अगर लब पे तो माज़ूर हैं हम

ऐ खुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
ख़ूगर-ए-हम्ज़ से ड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।

थी तो मौज़ूद अज़ल से ही तेरी जात-ए-कदील
फूल था ज़ेर-ए-चमन, पर न परेशान थी
शर्त-ए-इंसाप है ऐ साहब-ए-अल्ताफ़-ए-हमीं ।
बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती नसीम ।

वरना उम्मत तेरी महबूब की दीवानी थी

हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजर
कहीं थे मस्जूद ते पत्थर, कहीं माबूद शज़र
कूगर-ए-पैकर-ए-महसूद थे इंसा की नज़र
मानता फ़िर अनदेखे खुदा को कोई क्यूंकर
तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा
कुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लमु ने किया काम तेरा

बस रहे थे यहीं सल्जूक भी, तूरानी भी
अहल-ए-चीन चीन में, ईरान में सासानी भी
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी
इसी दुनिया में यहूदी भी थी, नसरानी भी

पर तेरे नाम पर तलवार उठाई किसने
बात जो बिगड़ी हुई थी बनाई किसने

थे हमीं एक तेरे मा के आराओं में
खुश्कियों में लड़ते कभी, कभी दरियाओं में
दी अज़ाने कभी यूरोप के कलीशाओं में
कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सेहराओं में ।

शान न जँचती थी
कलेमा पढ़ते थे हमछांव में तलवारों की

हम जो जीते तो जंगों की मुसीमत के लिए
और लड़ते थे तेरी
सर बकफ़ फिरते थे क्या दौलत के लिए


बुत फरोशी के बुत-शिकनी क्यों करती
टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे
तुझ से हर कश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे
तेग क्या चीज है हम तोप से लड़ जाते थे ।

तू ही कह दे, उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर किसने
शहर कैसर का जो था, उसको तोड़ा किसने


किसने ठंडा किया आतिशकदा-ए-ईरान को ।
किसने फिर ज़िन्दा किया
कौन सी क़ौम फ़क़त तेरी तलबगार हुई
किसकी

किसकी शमशीर जहाँगीर


किसकी हैमत से सनम सहमे हुए रहते थे
मुँह के बल गिरके हु अल्लाह-ओ-अहद कहते थे

आ गया ऐन लड़ाई अगर-वक़्त-ए-नमाज़
एक ही खड़े हो गए
न कोई बन्दा रहा, न कोई बन्दा नवाज़

तेरी सरकारा में पहुँचे तो सभी एक हुए


तौहीद को लेकर सिफ़त-ए-शाम फिरे
कोह-में
और मालूम है तुझको कभी नाकाम फिरे

दश्त-तो-दश्त हैं,
दोर-ए-अंसा को ग़ुलामी के छुड़ाया हमने
तेरे काबों को जबीनों पे बसाया हमने


फिर भी हमसे घ़िला है कि वफ़ादार नहीं
हम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहीं

उम्मतें और भी है, उनमें गुनहगार भी है
इनमें काहिल भी है


बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर


बुत सनमख़ानों में कहते के मुसलमान गए
है खुशी उनको कि काबे के निगहबान गए
एहसासा तुझे है कि नहीं
अपना तौहीद का कुछ फाज तुझे है कि नहीं

ये शियाकत नहीं के हैं उनके ख़ज़ाने
नहीं महफिल में जिन्हें बात भी करवने का अउर


बात ये क्या है कि पहली सी
तेरी कुदरत तो है वो कि जिसकी न हद है न