"बँटवारा / रश्मि रमानी" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रश्मि रमानी }} {{KKCatKavita}} <poem> नक़्शानवीस ने उठाई क़ल…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 13: | पंक्ति 13: | ||
ये तेरा आँगन, ये मेरा घर | ये तेरा आँगन, ये मेरा घर | ||
घड़ी भर में ही साथ-साथ रहने वाले | घड़ी भर में ही साथ-साथ रहने वाले | ||
− | हो गए | + | हो गए सीमापार । |
+ | |||
ऊँघ रहे सैनिकों ने सँभाल ली बन्दूकें | ऊँघ रहे सैनिकों ने सँभाल ली बन्दूकें | ||
जब-जब उनके आक़ा हो जाते थे | जब-जब उनके आक़ा हो जाते थे | ||
पंक्ति 26: | पंक्ति 27: | ||
कुछ दिनों के बाद | कुछ दिनों के बाद | ||
+ | जब थम जाता था सब कुछ | ||
+ | सरहद के सिपाही आपस में खेला करते थे पत्ते | ||
+ | कुछ डूब जाते थे अपनी प्रेम कहानियों में | ||
+ | इस तमाम आपाधापी के बावजूद | ||
+ | परिन्दे सारे आसमान में उड़ते थे | ||
+ | बिना किसी औपचारिकता के | ||
+ | सरहद के पार हवा चलती थी बेरोकटोक | ||
+ | और नदियों का पानी तो था ही लापरवाह | ||
+ | ख़ुद ब ख़ुद ढूँढ़ लेता था वह अपनी राह | ||
+ | |||
+ | दूतावासों में चल रही रस्साकशी से | ||
+ | कोई फ़र्क नहीं पड़ता था तमाम लोगों को | ||
+ | बस | ||
+ | कुछ लोग ढूँढ़ते थे उस नक़्शानवीस को | ||
+ | जो खींच दे आसमान पर भी लकीर | ||
+ | और बाँट दे आसमान को भी | ||
+ | दो-तीन-पाँच टुकड़ों में | ||
+ | और कर दे उसका भी तिया-पाँचा | ||
+ | |||
+ | उन्हें चाहिए थे वे जादूगर | ||
+ | जो मोड़ सकें पानी का बहाव | ||
+ | रोक दें हवा की रफ़्तार | ||
+ | अपनी नाकामयाबी पर | ||
+ | कोसते हों शायद भगवान को भी | ||
+ | पर कुछ लोग अदा करते थे शुक्रिया | ||
+ | उस ऊपर वाले का | ||
+ | जिसने सोच-समझकर संसार बनाया | ||
+ | और गिनकर | ||
+ | जंगल ! | ||
</poem> | </poem> |
23:00, 25 जून 2011 के समय का अवतरण
नक़्शानवीस ने उठाई क़लम
ज़मीन के नक़्शे के बीच खींची रेखा
और कहा-
'ये हिन्दुस्तान, ये पाकिस्तान'
मज़दूर ले आए काँटेदार तार
सरहद पर खड़ी की बागड़
ये तेरा आँगन, ये मेरा घर
घड़ी भर में ही साथ-साथ रहने वाले
हो गए सीमापार ।
ऊँघ रहे सैनिकों ने सँभाल ली बन्दूकें
जब-जब उनके आक़ा हो जाते थे
ऊबे और अनमने
जैसे ही लगता था उन्हें
कि भूल रहे हैं लोग इतिहास
वे चीख़ते थे-- 'फ़ायर'
और बदहवास सैनिक चलाते थे गोलियाँ बेशुमार
बिना यह देखे कि-
कहाँ है निशाना और कौन बेगुनाह मारा गया है
अफ़रा-तफ़री के इस आलम में ?
कुछ दिनों के बाद
जब थम जाता था सब कुछ
सरहद के सिपाही आपस में खेला करते थे पत्ते
कुछ डूब जाते थे अपनी प्रेम कहानियों में
इस तमाम आपाधापी के बावजूद
परिन्दे सारे आसमान में उड़ते थे
बिना किसी औपचारिकता के
सरहद के पार हवा चलती थी बेरोकटोक
और नदियों का पानी तो था ही लापरवाह
ख़ुद ब ख़ुद ढूँढ़ लेता था वह अपनी राह
दूतावासों में चल रही रस्साकशी से
कोई फ़र्क नहीं पड़ता था तमाम लोगों को
बस
कुछ लोग ढूँढ़ते थे उस नक़्शानवीस को
जो खींच दे आसमान पर भी लकीर
और बाँट दे आसमान को भी
दो-तीन-पाँच टुकड़ों में
और कर दे उसका भी तिया-पाँचा
उन्हें चाहिए थे वे जादूगर
जो मोड़ सकें पानी का बहाव
रोक दें हवा की रफ़्तार
अपनी नाकामयाबी पर
कोसते हों शायद भगवान को भी
पर कुछ लोग अदा करते थे शुक्रिया
उस ऊपर वाले का
जिसने सोच-समझकर संसार बनाया
और गिनकर
जंगल !