भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आदमी भीतर से भी टूटा हुआ लगता है आज / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
 
यह शहर का शहर ही लूटा हुआ लगता है आज
 
यह शहर का शहर ही लूटा हुआ लगता है आज
  
तुझसे आती है किसी जूड़े की ख़ुशबू तो गुलाब!
+
तुझसे आती है किसी जूड़े की तो ख़ुशबू, गुलाब!
 
हाथ से दामन मगर छूटा हुआ लगता है आज
 
हाथ से दामन मगर छूटा हुआ लगता है आज
 
<poem>
 
<poem>

01:39, 9 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


आदमी भीतर से भी टूटा हुआ लगता है आज
ज़िन्दगी, शीशा तेरा फूटा हुआ लगता है आज

हर नज़र ख़ामोश है, हर घर से उठता है धुआँ
यह शहर का शहर ही लूटा हुआ लगता है आज

तुझसे आती है किसी जूड़े की तो ख़ुशबू, गुलाब!
हाथ से दामन मगर छूटा हुआ लगता है आज