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दृग झुके भूमि पर भय से
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 कुछ क्षण रुक बोले मुनि फिर नृप का देख चाव 'राजन! मैं आया आज लिए कुछ स्वार्थ-भावरक्षण ऋषियों का यह तो क्षत्रिय का स्वभावदेखते तुम्हारे यज्ञ-ध्वंस हों महारावहिंसक असुरों के द्वारा!. . . बोले मुनि, 'राजन धैर्य धरो सब सुनकर भी असुरों से रण की युक्ति रचेगी और कभीतुम रहो अवध में, रहे तुम्हारी सैन्य सभी बस मुझको दे दो राम-लखन दो कुँवर अभी निज आश्रम की रक्षा को . . . 'पुर, परिजन, प्रिय परिवार, बंधु, धन, धाम सहीमैं दे सकता हूँ सब कुछ लेकिन राम नहींमुनि गूँज रहा नस-नस में मेरे नाम वही'नृप कह न सके आगे, पलकें अविराम बहींपरिषद डूबी उतरायी . . . दिख पड़ी सामने सरयू निर्मल पुण्य-पाथतब कहा राम ने पुरवासी-दिशि जोड़ हाथ 'अब फिरें आप यों विकल न होंगे अवध-नाथ!मैं लौटूंगा द्रुत, द्रुततर, द्रुततम बंधु साथ  मुनि  का आदेश  वहन कर 'खल-दमन, संत-जन-रक्षण-हित है प्रभुताई  आशिष दें, भूलूँ नहीं क्षात्र-व्रत मैं, भाई!सेवा में ही दी मुक्ति मुझे तो दिखलाई है ध्येय, पोंछ प्रति दृग के आँसू दुखदायी निर्भय कर दूँ भव-अंतर '"नर-तनु निष्फल पर-हित में नहीं लगाया जो जीवन क्या है दुखियों के काम न आया जो!विजयी, निज-पर की तोड़ सका दृढ माया जो त्यागा जिसने संसार, उसी का पाया हो"    मैं यही सिखाने आया 'हो अभय, मुक्त जग, रहे न कोई विफल-कामप्रतिजन मुझमें, प्रतिजन में मैं रम रहा राममैं धरती पर रचकर नूतन वैकुण्ठ-धाम नर को नारायण का कैसे मिल सके नामवह मार्ग दिखाने आया'  . . . गुण-शील-रूप-व्रत एक, राम-प्रतिछवि ललाम लघु भ्राता-सँग आ गए भरत ज्यों फिरे रामहँस बोले, 'प्रभु त्रिभुवन-नायक से बचे वामसुर, असुर, नाग, नर, ऐसा कहीं न शक्ति-धामजननी! मत तनिक बिचारें' कौसल्या ने पुलकित प्राणों से लिया लगा आनन युग सुत का निश्छल! पावन, स्नेहरँगा बोली गदगद्, 'प्रिय तुमसे बढ़कर पुत्र सगा!रहता तुममें ही राम-लखन का हृदय टँगातुम कभी न उनसे न्यारे'. . .  हो गया ढेर पल में सुबाहु-मुख-बाहु-हीनरथ, अश्व, पदातिक, सैन्य दिवातम-से विलीनसागर के पार उड़ा शर खा मारीच दीनजो बचे, फिरे छवि-क्षीण, पुन: लौटे कभी न भूले भी आश्रम की दिशि  सज गये साज़ मंगल के तोरण-कलश-द्वार नभ-सुमन-वृष्टि, मुनि करते वैदिक महोच्चार'जय राम! अखिल जग-शक्ति-शील-सौन्दर्य-सारत्रय-ताप-हरण, भव-शरण करण-कारण उदारपा तुम्हें विगत माया-निशि 'तुम साधन-हीन दीन जन के रक्षक, त्राता जन-जन के अंत:-स्रोत, शक्ति-शुभगति-दाताआदर्श-चरित, जय! निगमागम-से युग भ्राता हो निर्बल अबसे कहीं न कोई दुख पातातुम निर्धन के धन आये  'योगी ने देखा तुम्हें तुरीयावस्था धर मुनि ने मन में, ऋषियों ने सृष्टि-व्यवस्था पर घट-घट-वासी विभु तुम्हीं वैदिकों के ईश्वर जय! मनुज-रूप, सुर-भूप, भक्त-भय-हर, सुखकर तुम जग के जीवन आये 'मर्यादा जाग उठी धर्मों की लुप्त-प्राय घर-घर में यज्ञ-हुताशन, समता, सत्य, न्याय तुम आये प्रभु! बहुजन-हिताय, बहुजन-सुखाय सन्देश धर्म का जिससे घर-घर फैल जाय संसृति सब भाँति सुखी हो  'कोई न काम-रत, स्वेच्छाचारी, शक्ति-भीतसंकलित, संतुलित, जन-जन के जीवन विनीतरण जड़ तत्वों में, क्रीड़ा, कौतुक, हार-जीत सबको सम, सहज धरा के धन, हिम, ताप, शीत जन एक कहीं न दुखी हो'  लौटे मुनिगण करते दिशि-दिशि प्रभु-यशोगान आश्रम से अनति दूर जड़ता ज्यों मूर्तिमान थी जहाँ गौतमी बिता रही दिन तृण-समानकह दिया किसीने राजकुँवर युग छवि-निधानमृगया के हित हैं आये . . . पुरजन-परिजन से तिरस्कृता अबला, अनाथसहती समाज की घृणा न कोई संग-साथत्यक्ता तरुणी को पारस-मणि-सी लगी हाथ प्रमुदित, शंकित, गर्वित, लज्जित-सी उठ हठात् उसने नव वसन सजाये . . . दिन बीते, बीती रात, प्रात फिर साँझ हुई बन गयी प्रतीक्षा जैसे विष की बुझी सुई निस्तेज अहल्या बिना छुई ज्यों छुईमुई मकड़ी-सी पाशबद्ध जैसे ककड़ी कड़ुई सोये से मानों जागी  कटि पर घट ले आलुलित-केश, सद्य:स्नाता चल दी कौशिक-मख-भूमि जिधर थी विख्याता थे जहाँ बसे सुर-मुनि-सुख-दाता, भव-त्राता युग अस्ति-नास्ति-से गौर-श्याम, दोनों भ्राता  जन-सेवा-हित गृह-त्यागी देखे मुनि के सँग कोटि-काम-शोभाभिराम इन्दीवर-निन्दित-नयन, राम, घन-सजल-श्याम नत, शांत, मौन, स्वस्थित-से, चिर आनंद-धामयुग भक्ति-मुक्ति-से चरण, भीत भाव के विरामसंकुचित धरा पर धरते  गंभीर, धीर, शुचि, सरल, गुणों के समुचय-से पीछे लक्ष्मण तनु गौर, आ रहा यश जैसे  सब पाप-ताप कर क्षार स्नेहमय दृग-द्वय से धनु-शर कर, उर मणि-माल, बढ़ रहे विस्मय-से भव को आलोकित करते . . .  श्यामल अलकें ज्यों बिछी शिला सम्मुख प्रभु के राजीव-नयन गुरु की दिशि मुड़, संकुचित रुकेबोले मुनि, 'राघव! रघुकुल का गौरव न झुकेपरित्यक्ता गौतम-वधू पाप से शतक्रतु के यह अबला, दीन, बिचारी आहत हरिणी-सी उर में विष की लिए चोट बस तनिक तुम्हारी चरण-रेणु-हित रही लोट प्रभु दो कलंकिनी को करुणा की अभय ओटढह जायें जिससे कोटि जन्म के पाप-कोट फूले उदास फुलवारी' मंगल-गौरव-छवि-धाम राम निष्काम बढ़ेअभिशप्त, तप्त भू की दिशि ज्यों घनश्याम बढ़ेतमपूर्ण गुहा में जैसे किरण ललाम बढ़े छूते ही दृग से अश्रु-तुहिन अविराम झड़े गल गयी शिला-सी नारी युग-युग का पाप-ताप पल में जल हुआ क्षार आ गयी तीर पर तरणी जैसे निराधारसाधन-भ्रष्टा ने पाया मानों सिद्धि-द्वारपग से लिपटी कर उठी आर्त स्वर में पुकारजग के छल-बल से हारी. . .   अनुरागी मन के पावन पति पर ही उदारमैं हाय! अभागिन, नागिन-सी कर उठी वार प्रभु शिला बन गयी नारी शिर ले शाप-भार तुम, देव! खोल दो आज हृदय के रुद्ध द्वार जड़ता नव-जीवन पाये. . . 'अंतर में जो भी कलुष, पाप, लांछना, व्यथा सब बनें आज कंचन-सी पारस परस यथा कैसे कह दूँ मैं, देव! कि जीवन गया वृथा जब जुड़ी अहल्या के सँग पावन राम-कथाकल्याणी, मंगलकारी! जलता न हृदय में ग्रीष्म, नयन सावन होते!क्यों आते जग में राम न जो रावण होते!होते न पतित तो कहाँ पतित-पावन होते!प्रभु! चरण तुम्हारे कैसे मनभावन होते बनती न शिला जो नारी!' दृग से झर-झर आँसू  बरसे, रूँध गया गलाकह सकी न आगे कुछ भी भावाकुल अबला बोले प्रभु करुणा-सजल, 'अहल्ये! न रो, भला तू पावन सदा पूर्णिमा की ज्यों चन्द्र-कला,अब और नहीं तपना है  वह क्षणिक हृदय की दुर्बलता, वह पाप-भारकल का सारा जीवन जैसे बीती बयारवह देख, आ रहे गौतम, पहला लिए प्यारअब से नूतन जीवन, नव संसृति में सँवारजो बीत गया सपना है  रवि-शशि-से मन की चपल वृत्ति में बँधे आप किसके मानस में उदित न होते पुण्य-पाप!गिर-गिर कर उठना चेतनता का यही मापजन-जीवन पर बस उसी पुरुष की पड़ी छाप जो कभी न दुख से हारा जो तिल-तिल जलता गया, किन्तु बुझ सका नहींजो पल-पल लड़ता गया, कष्ट से थका नहींजो रुका न पथ पर, भय-विघ्नों से झुका नहींजो चूक गया फिर भी निज को खो चुका नहीं जन वही मुझे है प्यारा जो पीड़ित, लांछित, दीन, दुखी दुर्बल, अनाथ चिर-पतित, अपावन, जग में चलते झुका माथमैं भक्ति-मुक्ति से भरता उनके रिक्त हाथ दूँ बहा सृष्टि में प्रेम-जाह्नवी पुण्य-पाथ बस इसी लिए आया हूँ अब रहा न तेरी पावनता में मीन-मेष बीती दुख की तम-निशा, सुखों का प्रात देखमुनि-रोषानल में तप कर निर्मल कनक-रेख,पढ़ आज, अहल्ये! नूतन जीवन-भाग्य-लेख जो तेरे हित लाया हूँ’ <poem>
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