Changes

[[Special:Contributions/वीरेन्द्र खरे अकेला|वीरेन्द्र खरे अकेला]] ([[User talk:वीरेन्द्र खरे अकेला|वार्ता]]) के अवतरण 1282
बचा ही क्या है हयात में अब सुनहरे दिन तो निपट गये हैं
यही ठिकाने के चार दिन थे सो तेरी हां हूं में कट गये हैं
हयात ही थी सो बच गया हूं वगरना सब खेल हो चुका था
तुम्हारे तीरों ने कब ख़ता की हमीं निशाने से हट गये हैं
 
हरेक जानिब से सोच कर ही चढ़ाई जाती हैं आस्तीनें
वो हाथ लम्बे थे इस क़दर के हमारे क़द ही सिमट गये हैं
 
हमारे पुरखों की ये हवेली अजीब क़ब्रों सी हो गयी है
थे मेरे हिस्से में तीन कमरे जो आठ बेटों में बट गये हैं
 
मुहब्बतों की वो मंजि़लें हों, के जाहो-हशमत की मसनदें हों
कभी वहां फिर न मुड़ के देखा क़दम जहां से पलट गये हैं
 
बड़े परीशा हैं ऐ मुहासिब तिरे हिसाबो किताब से हम
किसे बतायें ये अलमिया अब कि ज़र्ब देने पे घट गये हैं
 
मैं आज खुल कर जो रो लिया हूं तो साफ़ दिखने लगे हैं मंज़र
ग़मों की बरसात हो चुकी है वो अब्र आंखों से छंट गये हैं
 
वही नहीं एक ताज़ा दुश्मन, सभी को मिर्ची लगी हुई है
हमें क्या अपना बनाया तुमने कई नज़र में खटक गये हैं
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
3,286
edits