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"मुक्तिबोध के नाम / दिविक रमेश" के अवतरणों में अंतर
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12:35, 28 सितम्बर 2007 का अवतरण
सुनो मुक्तिबोध, सुनो!
देखा था जिनको तुमने
शामिल
अंधेरे की शोभा-यात्रा में
वे जो
तुम्हारे युग में
केवल अंधेरे में नंगा होने का साहस करते थे--
वे जिनको तुमने हठात
खिड़की खोल झाँक लिया था
और जो भाग पड़े थे...
तुम तो निकल गए, कहीं दूर
उनकी सज़ा हम पा रहे हैं।
सुनो
वे सब
वही सब/ फिर दोहरा रहे हैं ।
उन्हें अब अंधेरों की ज़रूरत नहीं ।
वे दौड़ते आ रहे हैं
दिन-दहाड़े
चौराहों पर ।
नहीं-नहीं
अब मुझे शक होता है
उस पर भी
जो लेखक बन
जेल में मर गया ।