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अजनबी यह देश, अनजानी यहां की हर डगर है,<br>बात मेरी क्या- यहां हर एक खुद से बेखबर है<br>किस तरह मुझको बना ले सेज का सिंदूर कोई<br>जबकि मुझको ही नहीं पहचानती मेरी नजर है,<br>आंख में इसे बसाकर मोहिनी मूरत तुम्हारी<br>मैं सदा को ही स्वयं को भूल जाना चाहता हूं<br>मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥<br><br>
दीप को अपना बनाने को पतंगा जल रहा है,<br>बूंद बनने को समुन्दर का हिमालय गल रहा है,<br>प्यार पाने को धरा का मेघ है व्याकुल गगन में,<br>चूमने को मृत्यु निशि-दिन श्वास-पंथी चल रहा है,<br>है न कोई भी अकेला राह पर गतिमय इसी से<br>मैं तुम्हारी आग में तन मन जलाना चाहता हूं।<br>मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥<br><br>
देखता हूं एक मौन अभाव सा संसार भर में,<br>सब विसुध, पर रिक्त प्याला एक है, हर एक कर में,<br>भोर की मुस्कान के पीछे छिपी निशि की सिसकियां,<br>फूल है हंसकर छिपाए शूल को अपने जिगर में,<br>इसलिए ही मैं तुम्हारी आंख के दो बूंद जल में<br>यह अधूरी जिन्दगी अपनी डुबाना चाहता हूं।<br>मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥<br><br>
वे गए विष दे मुझे मैंने हृदय जिनको दिया था,<br>शत्रु हैं वे प्यार खुद से भी अधिक जिनको किया था,<br>हंस रहे वे याद में जिनकी हजारों गीत रोये,<br>वे अपरिचित हैं, जिन्हें हर सांस ने अपना लिया था,<br>इसलिए तुमको बनाकर आंसुओं की मुस्कराहट,<br>मैं समय की क्रूर गति पर मुस्कराना चाहता हूं।<br>मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥<br><br>
दूर जब तुम थे, स्वयं से दूर मैं तब जा रहा था,<br>पास तुम आए जमाना पास मेरे आ रहा था<br>तुम न थे तो कर सकी थी प्यार मिट्टी भी न मुझको,<br>सृष्टि का हर एक कण मुझ में कमी कुछ पा रहा था,<br>पर तुम्हें पाकर, न अब कुछ शेष है पाना इसी से<br>मैं तुम्हीं से, बस तुम्हीं से लौ लगाना चाहता हूं।<br>
मैं तुम्हें, केवल तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥
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