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मो बरजत बरजत उठि धाये, नहीं पायौ अनुमान॥ | मो बरजत बरजत उठि धाये, नहीं पायौ अनुमान॥ | ||
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वह समुद्र ओछे बासन ये, धरैं कहां सुखरासि। | वह समुद्र ओछे बासन ये, धरैं कहां सुखरासि। | ||
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सुनहु सूर, ये चतुर कहावत, वह छवि महा प्रकासि॥ | सुनहु सूर, ये चतुर कहावत, वह छवि महा प्रकासि॥ | ||
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01:33, 3 अक्टूबर 2007 का अवतरण
राग देश
नैन भये बोहित के काग।
उड़ि उड़ि जात पार नहिं पावैं, फिरि आवत इहिं लाग॥
ऐसी दसा भई री इनकी, अब लागे पछितान।
मो बरजत बरजत उठि धाये, नहीं पायौ अनुमान॥
वह समुद्र ओछे बासन ये, धरैं कहां सुखरासि।
सुनहु सूर, ये चतुर कहावत, वह छवि महा प्रकासि॥
भावार्थ :- `उड़ि उड़ि....लाग,' ये नेत्र संसार की दूसरी-दूसरी वस्तुएं भी देखते हैं, पर उन पर दृष्टि स्थिर नहीं रहती। अटके हुए तो ये कृष्ण छवि में ही हैं, बार- बार वहीं चले जाते हैं। सारा कृष्ण सौन्दर्य का सागर है, जिसका पार पाना कठिन है। जहां तक दृष्टि जाती है, सौन्दर्य-ही-सौन्दर्य है। उस सौन्दर्य को छोड़कर इन नेत्रों के लिए कहीं और आश्रय ही नहीं। `ये चतुर....प्रकासि,' नेत्र बड़े चतुर समझे गये हैं, पर उस असीम सुंदरता के सामने इनकी चतुराई नहीं चलती, वहां तो ये भी ठग लिये गए हैं।
शब्दार्थ :- बोहित =जहाज। लाग =स्थान। बरजत =रोकते हुए। ओछे बासन =छोटे बर्तन।