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चुप-चाप नदी / अज्ञेय

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गल जाती है।
लटकी हैं छायाएँ
निष्कम्प
पानी में।
 
और एक मेरे भीतर नदी है स्मृतियों की
जो निरन्तर टकराती है मेरी दुरन्त वासनाओं की चट्टानों से
जिस नदी की जिन चट्टानों से जिस टकराहट से
कोई शब्द नहीं होता
और जिस के प्रवाह में
बरफ़ की लड़ी की छाया-सा लटका हूँ मैं।
 
'''हाइडेलबर्ग, फरवरी, 1976'''
</poem>
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