"आँसू-१/गुलज़ार" के अवतरणों में अंतर
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− | अल्फाज | + | अल्फाज जो उगते, मुरझाते, जलते, बुझते |
रहते हैं मेरे चारों तरफ, | रहते हैं मेरे चारों तरफ, | ||
− | अल्फाज़ | + | अल्फाज़ जो मेरे गिर्द पतंगों की सूरत उड़ते |
रहते हैं रात और दिन | रहते हैं रात और दिन | ||
− | इन | + | इन लफ़्ज़ों के किरदार हैं, इनकी शक्लें हैं, |
रंग रूप भी हैं-- और उम्रें भी! | रंग रूप भी हैं-- और उम्रें भी! | ||
कुछ लफ्ज़ बहुत बीमार हैं, अब चल सकते नहीं, | कुछ लफ्ज़ बहुत बीमार हैं, अब चल सकते नहीं, | ||
कुछ लफ्ज़ तो बिस्तरेमर्ग पे हैं, | कुछ लफ्ज़ तो बिस्तरेमर्ग पे हैं, | ||
− | कुछ | + | कुछ लफ्ज़ हैं जिनको चोटें लगती रहती हैं, |
मैं पट्टियाँ करता रहता हूँ! | मैं पट्टियाँ करता रहता हूँ! | ||
− | अल्फाज़ | + | अल्फाज़ कई, हर चार तरफ बस यू हीं |
− | + | थूकते रहते हैं, | |
गाली की तरह-- | गाली की तरह-- | ||
मतलब भी नहीं, मकसद भी नहीं-- | मतलब भी नहीं, मकसद भी नहीं-- | ||
कुछ लफ्ज़ हैं मुँह में रखे हुए | कुछ लफ्ज़ हैं मुँह में रखे हुए | ||
− | चुइंगगम | + | चुइंगगम की तरह हम जिनकी जुगाली करते हैं! |
लफ़्ज़ों के दाँत नहीं होते, पर काटते हैं, | लफ़्ज़ों के दाँत नहीं होते, पर काटते हैं, | ||
− | और | + | और काट लें तो फिर उनके जख्म नहीं भरते! |
− | हर रोज मदरसों में 'टीचर' आते है | + | हर रोज मदरसों में 'टीचर' आते है गालें भर भर के, |
छः छः घंटे अल्फाज लुटाते रहते हैं, | छः छः घंटे अल्फाज लुटाते रहते हैं, | ||
बरसों के घिसे, बेरंग से, बेआहंग से, | बरसों के घिसे, बेरंग से, बेआहंग से, | ||
− | फीके लफ्ज़ कि जिनमे रस | + | फीके लफ्ज़ कि जिनमे रस भी नहीं, |
मानि भी नहीं! | मानि भी नहीं! | ||
− | एक | + | एक भीगा हुआ, छ्ल्का छल्का, वह लफ्ज़ भी है, |
− | जब | + | जब दर्द छुए तो आँखों में भर आता है |
− | कहने | + | कहने के लिये लब हिलते नहीं, |
− | आँखों | + | आँखों से अदा हो जाता है!! |
00:15, 18 अगस्त 2013 के समय का अवतरण
अल्फाज जो उगते, मुरझाते, जलते, बुझते
रहते हैं मेरे चारों तरफ,
अल्फाज़ जो मेरे गिर्द पतंगों की सूरत उड़ते
रहते हैं रात और दिन
इन लफ़्ज़ों के किरदार हैं, इनकी शक्लें हैं,
रंग रूप भी हैं-- और उम्रें भी!
कुछ लफ्ज़ बहुत बीमार हैं, अब चल सकते नहीं,
कुछ लफ्ज़ तो बिस्तरेमर्ग पे हैं,
कुछ लफ्ज़ हैं जिनको चोटें लगती रहती हैं,
मैं पट्टियाँ करता रहता हूँ!
अल्फाज़ कई, हर चार तरफ बस यू हीं
थूकते रहते हैं,
गाली की तरह--
मतलब भी नहीं, मकसद भी नहीं--
कुछ लफ्ज़ हैं मुँह में रखे हुए
चुइंगगम की तरह हम जिनकी जुगाली करते हैं!
लफ़्ज़ों के दाँत नहीं होते, पर काटते हैं,
और काट लें तो फिर उनके जख्म नहीं भरते!
हर रोज मदरसों में 'टीचर' आते है गालें भर भर के,
छः छः घंटे अल्फाज लुटाते रहते हैं,
बरसों के घिसे, बेरंग से, बेआहंग से,
फीके लफ्ज़ कि जिनमे रस भी नहीं,
मानि भी नहीं!
एक भीगा हुआ, छ्ल्का छल्का, वह लफ्ज़ भी है,
जब दर्द छुए तो आँखों में भर आता है
कहने के लिये लब हिलते नहीं,
आँखों से अदा हो जाता है!!