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ख़ानाबदोश औरत
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धार
 
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रचनाकार: [[किरण अग्रवाल]]
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रचनाकार: [[अरुण कमल]]
 
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ख़ानाबदोश औरत
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कौन बचा है जिसके आगे
अपनी काली, गहरी पलकों से
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इन हाथों को नहीं पसारा
ताकती है क्षितिज के उस पार
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सपना जिसकी आँखों में डूबकर
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यह अनाज जो बदल रक्त में
ख़ानाबदोश हो जाता है
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टहल रहा है तन के कोने-कोने
उसकी ही तरह
+
यह कमीज़ जो ढाल बनी है
समय
+
बारिश सरदी लू में
जो लम्बे-लम्बे डग भरता
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सब उधार का, माँगा चाहा
नापता है ब्रह्मांड को
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नमक-तेल, हींग-हल्दी तक
 +
सब कर्जे का
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यह शरीर भी उनका बंधक
  
समय
+
अपना क्या है इस जीवन में
जिसकी नाक के नथुनों से
+
सब तो लिया उधार
निकलता रहता है धुआँ
+
सारा लोहा उन लोगों का
जिसके पाँवों की थाप से
+
अपनी केवल धार ।
थर्राती है धरती
+
 
+
दिन
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जिसके लौंग-कोट के बटन में उलझकर
+
भूल जाता है अक्सर रास्ता
+
औरत उसके दिल की धडकन है
+
रूक जाए
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तो रूक जाएगा समय
+
 
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और इसलिए टिककर नहीं ठहरती कहीं
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चलती रहती है निरन्तर ख़ानाबदोश औरत
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अपने काफ़िले के साथ
+
पडाव-दर-पडाव
+
 
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बेटी — पत्नी — माँ....
+
वह खोदती है कोयला
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वह चीरती है लकडी
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वह काटती है पहाड
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वह थापती है गोयठा
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वह बनाती है रोटी
+
वह बनाती है घर
+
लेकिन उसका कोई घर नहीं होता
+
 
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ख़ानाबदोश औरत
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आसमान की ओर देखती है तो कल्पना चावला बनती है
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धरती की ओर ताके तो मदर टेरेसा
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हुँकार भरती है तो होती है वह झाँसी की रानी
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पैरों को झनकाए तो ईजाडोरा
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ख़ानाबदोश औरत
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विज्ञान को खगालती है तो
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जनमती है मैडम क्यूरी
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क़लम हाथ में लेती है तो महाश्वेता
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प्रेम में होती है वह क्लियोपैट्रा और उर्वशी
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भक्ति में अनुसुइय्या और मीरां
+
 
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वह जन्म देती है पुरूष को
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पुरूष जो उसका भाग्य-विधाता बन बैठता है
+
पुरूष जो उसको अपने इशारे पर हाँकता है
+
फिर भी बिना हिम्मत हारे बढ़ती रहती है आगे
+
ख़ानाबदोश औरत
+
 
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क्योंकि वह समय के दिल की धडकन है
+
अगर वह रूक जाए
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तो रूक जाएगी सृष्टि
+
 
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23:58, 14 फ़रवरी 2013 का अवतरण

धार

रचनाकार: अरुण कमल

कौन बचा है जिसके आगे
इन हाथों को नहीं पसारा

यह अनाज जो बदल रक्त में
टहल रहा है तन के कोने-कोने
यह कमीज़ जो ढाल बनी है
बारिश सरदी लू में
सब उधार का, माँगा चाहा
नमक-तेल, हींग-हल्दी तक
सब कर्जे का
यह शरीर भी उनका बंधक

अपना क्या है इस जीवन में
सब तो लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार ।