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"अखरावट / मलिक मोहम्मद जायसी" के अवतरणों में अंतर

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* [[अखरावट / पृष्ठ 1 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
गगन हुता नहिं महि हुती, चंद नहिं सूर ।<br>
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* [[अखरावट / पृष्ठ 2 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
ऐसइ अंधकूप महँ रचा मुहम्मद नूर ॥<br><br>
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* [[अखरावट / पृष्ठ 3 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
 
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* [[अखरावट / पृष्ठ 4 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
सोरठा
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* [[अखरावट / पृष्ठ 5 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
 
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* [[अखरावट / पृष्ठ 6 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
सांई केरा नावँ हिया पूर, काया भरी ।<br>
+
मुहमद रहा न ठाँव, दूसर कोइ न समाइ अब ॥<br><br>
+
 
+
आदिहु ते जो आदि गोसाईं । जेइ सब खेल रचा दुनियाईं ॥<br>
+
जस खेलेसि तस जाइ न कहा । चौदह भुवन पूरि सब रहा ॥<br>
+
एक अकेल, न दूसर जाती । उपजे सहस अठारह भाँती ॥<br>
+
जौ वै आनि जोति निरमई । दीन्हेसि ज्ञान, समुझि मोहिं भई ॥<br>
+
औ उन्ह आनि बार मुख खोला । भइ मुख जीभ बोल मैं बोला ॥<br>
+
वै सब किछु, करता किछु नाहीं । जैसे चलै मेघ परछाहीं ॥<br>
+
परगट गुपुत बिचारि सो बूझा । सो तजि दूसर और न सूझा ॥<br><br>
+
 
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दोहा
+
 
+
कहौं सो ज्ञान ककहरा सब आखर महँ लेखि ।<br>
+
पंडित पढ अखरावटी , टूटा जोरेहु देखी ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
हुता जो सुन्न-म-सुन्न, नावँ ना सुर सबद ।<br>
+
तहाँ पाप नहिं पुन्न , मुहमद आपुहि आपु महँ ॥1॥<br><br>
+
 
+
आपु अलख पहिले हुत जहाँ । नावँ न ठावँ न मूरति तहाँ ॥<br>
+
पूर पुरान, पाप नहिं पुन्नू । गुपुत,, तें गुपुत, सुन्न तें सुन्नू ॥<br>
+
अलख अकेल, सबद नहिं भाँती । सूरूज, चाँद; दिवस नहिं राती ॥<br>
+
आखर, सुर, नहिं बोल, अकारा । अकथ कथा का कहौं बिचारा ॥<br>
+
किछु कहिए तौ किछु नहिं आखौं । पै किछु मुहँ महँ, किछु हिय राखौं ॥<br>
+
बिना उरेह अरंभ बखाना । हुता आपु महँ आपु समाना ॥<br>
+
आस न, बास न, मानुष अँडा । भए चौखँड जो ऐस पखँडा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
सरग न,धरति न खंभमय, बरम्ह न बिसुन महेस ।<br>
+
बजर-बीज बीरौ अस , ओहि रंग, न भेस ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
तब भा पुनि अंकूर, सिरजा दीपक निरमला । <br>
+
रचा मुम्मद नूर, जगत रहा उजियार होई ॥2॥<br><br>
+
 
+
ऐस जो ठाकुर किय एक दाऊँ । पहिले रचा मुम्मद-नाऊँ ॥<br>
+
तेहि कै प्रीति बीज अस जामा । भए दुइ बिरिछ सेत औ सामा ॥<br>
+
होतै बिरवा भए दुइ पाता । पिता सरग औं धरती माता ॥<br>
+
सूरूज, चाँद दिवस औ राती । एकहि दूसर भएउ सँघाती ॥<br>
+
चलि सो लिखनी भइ दुइ फारा । बिरिछ एक उपनी दुइ डारा ॥<br>
+
भेंटेन्हि जाइ पुन्नि औ पापू । दुख औ सुख, आनंद संतापू ॥<br>
+
औ तब भए नरक बैकँठू । भल औ मंद, साँच औ झूठू ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
नूर मुहम्मद देखि तब भा हुलास मन सोइ ।<br>
+
पुनि इबलीस सँचारेउ, डरत रहै सब कोइ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
हुता जो अकहि संग, हौं तुम्ह काहे बीछुरा ?<br>
+
अब जिउ उठै तरंग, मुहमद कहा न जाइ किछु ॥3॥<br><br>
+
 
+
जौ उतपति उपराजै चहा । आपनि प्रभुता आपु सौं कहा ॥<br>
+
रहा जो एक जल गुपुत समुंदा । बरसा सहस अठारह बुँदा ॥<br>
+
सोई अंस घटै घट मेला । ओ सोइ बरन बरन होइ खेला ॥<br>
+
भए आपु औ कहा गोसाईं । सिर नावहु सगरिउ दुनियाईं ॥<br>
+
आने फूल भाँति बहु फूले । बास बेधि कौतुक सब भूले ॥<br>
+
जिया जंतु सब अस्तुति कीन्हा । भा संतोष सबै मिलि चीन्हा ॥<br>
+
तुम करता बड सिरजन-हारा । हरता धरता सब संसारा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
भरा भँडार गुपुत तहँ, जहाँ छाँह नहिं धूप ।<br>
+
पुनि अनबन परकार सौं खेला परगट रूप ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
परै प्रेम के झेल, पिउ सहुँ धनि मुख सो करै ।<br>
+
जो सिर सेंती खेल, मुहमद खेल सो प्रेम-रस ॥4॥<br><br>
+
 
+
एक चाक सब पिंडा चढे । भाँति भाँति के भाँडा गढे ॥<br>
+
जबहीं जगत किएउ सब साजा । आदि चहेउ आदम उपराजा ॥<br>
+
पहिलेइ रचे चारि अढवायक । भए सब अढवैयन के नायक ॥<br>
+
भइ आयसु चारिहु के नाऊँ । चारि वस्तु मेरवहु एक ठाऊँ॥<br>
+
तिन्ह चारिहु कै मँदिर सँवारा । पाँच भूत तेहिह महँ पैसारा ॥<br>
+
आपु आपु महँ अरुझी माया । ऐस न जानै दहुँ केहि काया ॥<br>
+
नव द्वारा राखे मँझियारा । दसवँ मूँदि कै दिएउ केवारा ॥<br><br>
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+
दोहा
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+
रकत माँसु भरि, पूरि हिय, पाँच भूत कै संग ।<br>
+
प्रेम-देस तेहि ऊपर बाज रूप औ रंग ॥<br><br>
+
 
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सोरठा
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+
रहेउ न दुइ महँ बीचु , बालक जैसे गरभ महँ ।<br>
+
जग लेइ आई मीचु, मुहमद रोएउ बिछुरि कै ॥5॥<br><br>
+
 
+
उहँईं कीन्हेउ पिंड उरेहा । भइ सँजूत आदम कै देहा ॥<br>
+
भइ आयसु, `यह जग भा दूजा । सब मिलि नवहु, करहु एहि पूजा ॥<br>
+
परगट सुना सबद, सिर नावा ॥ नारद कहँ बिधि गुपुत देखावा ॥<br>
+
तू सेवक है मोर निनारा । दसई पँवरि होसि रखवारा ॥<br>
+
भई आयसु, जब वह सुनि पावा । उठा गरब कै सीस नवावा ॥<br>
+
धरिमिहि धरि पापी जेइ कीन्हा । लाइ संग आदम के दीन्हा ॥<br>
+
उठि नारद जिउ आइ सँचारा । आइ छींक, उठि दीन्ह केवारा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
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+
आदम हौवा कहँ सृजा, लेइ घाला कबिलास ।<br>
+
पुनि तहँवाँ तें काढा, नारद के बिसवास ॥<br><br>
+
 
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सोरठा
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आदि किएउ आदेश, सुन्नहिं तें अस्थूल भए । <br>
+
आपु करै सब भेस मुहमद चादर-ओट जेउँ ॥6॥<br><br>
+
 
+
का-करतार चहिय अस कीन्हा ? आपन दोष आन सिर दीन्हा ॥<br>
+
खाएनि गोहूँ कुमति भुलाने । परे आइ जग महँ, पछिताने ॥<br>
+
छोडि जमाल-जलालहि रोवा । कौन ठाँव तें दैउ बिछोवा ॥ <br>
+
अंधकूप सगरउँ संसारू । कहाँ सो पुरुष, कहाँ मेहरारू ?॥<br>
+
रैनि छ मास तैसि झरि लाई । रोइ रोइ आँसू नदी बहाई ।<br>
+
पुनि माया करता कहँ भई । भा भिनसार, रैनि हटि गई ॥<br>
+
सूरुज उए, कँवल-दल फूले । दवौ मिले पंथ कर भूले ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
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+
तिन्ह संतति उपराजा भाँतिहि भाँति कुलीन ।<br>
+
हिंदू तुरुक दुवौ भए अपने अपने दीन ॥<br><br>
+
 
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सोरठा
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+
बुंदहि समुद समान, यह अचरज कासौं कहौं ?<br>
+
जो हेरा सो हेरान, मुहमद आपुहि आपु महँ ॥7॥<br><br>
+
 
+
खा-खेलार जस है दुइ करा । उहै रूप आदम अवतारा ॥<br>
+
दुहूँ भाँति तस सिरजा काया । भए दुइ हाथ, भए दुइ पाया ॥<br>
+
भए दुइ नयन स्रवन दुइ भाँती । भए दुइ अधर, दसन दुइ पाँती ॥<br>
+
माथ सरग, धर धरती भएऊ । मिलि तिन्ह जग दूसर होइ गएऊ ॥<br>
+
माटी माँसु, रकत भा लीरू । नसै नदी, हिय समुद गंभीरू ॥<br>
+
रीढ सुमेरु कीन्ह तेहि केरा । हाड पहार जुरे चहुँ फेरा ॥ <br>
+
बार बिरिछ, रोवाँ खर जामा । सूत सूत निसरे तन चामा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
सातौ दीप, नवौ खँड, आठौ दिसा जो आहिं । <br>
+
जो बरम्हंड सो पिंड है, हेरत अंत न जाहिं ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
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+
आगि, बाउ, जल, धूरि चारि मेरइ भाँडा गढा ।<br>
+
आपु रहा भरि पूरि मुहमद आपुहिं आपु महँ ॥8॥<br><br>
+
 
+
गा-गौरहु अब सुनहु गियानी । कहौं ग्यान संसार लखानी ॥<br>
+
नासिक पुल सरात पथ चला । तेहि कर भौहैं हैं दुइ पला ॥<br>
+
चाँद सुरुज दूनौ सुर चलहीं । सेत लिलार नखत झलमलहीं ॥<br>
+
जागत दिन -निसि सोवत माँझा । हरष भोर, बिसमय होइ साँझा ॥<br>
+
सुख बैकुंठ भुगुति औ भोगू । दुख है नरक, जो उपजै रोगू ॥<br>
+
बरखा रुदन, गरज अति कोहू । बिजुरी हँसी हिवंचल छोहू ॥<br>
+
घरी पहर बेहर हर साँसा । बीतै छऔ ऋतु, बारह मासा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
जुगजुग बीतै पलहि पल, अवधि घटति निति जाइ ।<br>
+
मीचु नियर जब आवै, जानहुँ परलय आइ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
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+
जेहि घर ठग हैं पाँच, नवौ बार चहुँदिसि फिरिहिं । <br>
+
सो घर केहि मिस बाँच ? मुहमद जौ निसि जागिए ॥9॥ <br><br>
+
 
+
घा-घट जगत बराबर जाना । जेहि महँ धरती सरग समाना ॥<br>
+
माथ ऊँच मक्का बन ठाऊँ । हिया मदीना नबी क नाऊँ<br>
+
सरवन ,आँखि, नाक, मुख चारी । चारिहु सेवक लेहु बिचारी ॥<br>
+
भाव चारि फिरिस्ते जानहु । भावै चारि यार पहिचानहुँ ॥<br>
+
भावै चारिहु मुरसिद कहऊ । भावै चारि किताबैं पढऊ ॥<br>
+
भावै चारि इमाम जे आगे । भावै चारि खंभ जे लागे ॥<br>
+
भाव चारिहु जुग मति-पूरी । भावै आगि, वाउ,जल धूरी ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
नाभि-कँवल तर नारद लिए पाँच कोटवार ।<br>
+
नवौ दुवारि फिरै निति दसईं कर रखवार ॥ <br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
पवनहु तें मन चाँड, मन तें आसु उतावला ।<br>
+
कतहुँ भेंड न डाँड, मुहमद बहुँ बिस्तार सो ॥10॥<br><br>
+
 
+
ना-नारद तस पाहरु काया । चारा मेलि फाँद जग माया ॥<br>
+
नाद, बेद औभूत सँचारा । सब अरुझाइ रहा संसारा ॥<br>
+
आपु निपट निरमल होइ रहा । एकहु बार जाइ नहिं गहा ॥<br>
+
जस चौदह खंड तैस सरीरा । जहँवैं दुख है तहँवैं पीरा ॥<br>
+
जौन देस महँ सँवरे जहवाँ । तौन देस सो जानहु तहँवा ॥<br>
+
देखहु मन हिरदय बसि रहा । खन महँ जाइ जहाँ कोइ चहा ॥<br>
+
सोवत अंत अंत महँ डोलै । जब बोलै तब घट महँ बोलै ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
तन-तुरंग पर मनुआ, मन-मस्तक पर आसु ।<br>
+
सोई आसु बोलावई अनहद बाजा पासु ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
देखहु कौतुक आइ , रूख समाना बीज महँ ।<br>
+
आपुहि खोदि जमाइ मुहमद सो फल चाखई ॥11॥<br><br>
+
 
+
चा-चरित्र जौ चाहहु देखा । बूझहु बिधना केर अलेखा ॥<br>
+
पवन चाहि मन बहुत उताइल । तेहिं तें परम आसु सुठि पाइल ॥<br>
+
मन एक खंड न पहुचै पावै । आसु भुवन चौदह फिरि आवै ॥<br>
+
भा जेहि ज्ञान हिये सो बूझै । जो धर ध्यान न मन तेहि रूझै ॥<br>
+
पुतरी महँ जो बिंदि एक कारी । देखौ जगत सो पट बिस्तारी ॥<br>
+
हेरत दिस्टि उघरि तस आई । निरखि सुन्न महँ सुन्न समाई ॥<br>
+
पेम समुन्द सो अति अवगाहा । बूडै जगत न पावै थाहा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
जबहिं नींद चख आवै उपजि उठै संसार । <br>
+
जागत ऐस न जानै, दहुँ सौ कौन भंडार ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
सुन्न समुद चख माहि जल जैसी लहरैं उठहिं ।<br>
+
उठि उठि मिटि मिटि जाहिं, मुहमद खोज न पाइए ॥12॥<br><br>
+
 
+
छा-छाया जस बुंद अलोपू । ओठई सौं आनि रहा करि गोपू ॥<br>
+
सोइ चित्त सों मनुवाँ जागै । ओहि मिलि कौतुक खेलै लागै ॥<br>
+
देखि पिंड कहँ बोली बोलै । अब मोहिं बिनु कस नैन न खोलै ? ॥<br>
+
परमहंस तेहि ऊपर देई । सोऽहं सोऽहं साँसै लेई ॥<br>
+
तन सराय, मन जानहु दीया । आसु तेल, दम बाती कीआ ॥<br>
+
दीपक महँ बिधि-जोति समानी । आपुहि बरै । निरबानी ॥<br>
+
निघटे तेल झूरि भइ बाती । गा दीपक बुझि, अँधियरि राती ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
गा सो प्रान-परैवा, कै पींजर-तन छूँछ ।<br>
+
मुए पिंड कस फूलै ? चेला गुरु सन पूछ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
बिगरि गए सब नावँ, हाथ पाँव मुँह सीस धर ।<br>
+
तोर नावँ केहि ठाँव, मुहमद सोइ बिचारिए ॥13॥<br><br>
+
 
+
जा-जानहु अस तन महँ भेदू । जैसे रहै अंड महँ मेदू ॥<br>
+
बिरिछ एक लागी दुइ डारा । एकहिं तें नाना परकारा ॥<br>
+
मातु के रकत पिता के बिंदू । उपने दवौ तुरुक औ हिंदू ॥<br>
+
रकत हुतें तन भए चौरंगा । बिदु हुतें जिउ पाँचौ संगा ॥<br>
+
जस ए चारिउ धरति बिलाहीं । तस वै पाँचौ सरगहि जाहीं ॥<br>
+
फूलै पवन, पानि सब गरई । अगिनि जारि तन माटी करई ॥<br>
+
जस वै सरग के मारग माहाँ । तस ए धरति देखि चित चाहा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
जस तन तस यह धरती, जस मन तैस अकास ।<br>
+
परमहंस तेहि मानस, जैसि फूल महँ बास ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
तन दरपन कहँ साजु दरसन दखा जौ चहै ।<br>
+
मन सौं लीजिय माँजि मुहमद निरमल होइ दिआ ॥14॥<br><br>
+
 
+
झा-झाँखर-तन महँ मन भूलै । काटन्ह माँह फूल जनु फूलै ॥<br>
+
देखहुँ परमहंस परछाहीं । नयन जोति सो बिछुरति नाही ॥<br>
+
जगमग जल महँ दीखत जैसे । नाहिं मिला, नहिं बेहरा तैसे ॥<br>
+
जस दरपन महँ दरसन देखा । हिय निरमल तेहि महँ जग देखा ॥<br>
+
तेहि संग लागीं पँचौ छाया । काम, कोह, तिस्ना, मद, माया ॥<br>
+
चख महँ नियर, निहारत दूरी । सब घट माँह रहा भरिपूरी ॥<br>
+
पवन न उडै, न भीजै पानी । अगिनि जरै जस निरमल बानी ॥<br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
दूध माँझ जस घीउ है, समुद माँह जस मोति ।<br>
+
नैन मींजि जो देखहु, चमकि ऊठै तस जोति ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
एकहि तें दुइ होइ, दुइ सौं राज न चलि सकै ।<br>
+
बीचु तें आपुहि खोइ, मुहमद एकै होइ रहु ॥15॥<br><br>
+
 
+
ना-नगरी काया बिधि कीन्हा । लेइ खोजा पावा, तेइ चीन्हा ॥<br>
+
तन महँ जोग भोग औ रोगू । सूझि परै संसार-सँजोगू ॥<br>
+
रामपुरी औ कीन्ह कुकरमा । मौन लाइ सोधै अस्तर माँ ॥<br>
+
पै सुठि अगम पंथ बड बाँका । तस मारग जस सुई क नाका ॥<br>
+
बाँक चढाव, सात खँड ऊँचा । चारि बसेरे जाइ पहूँचा ॥<br>
+
जस सुमेरु पर अमृत मूरी । देखत नियर, चढत बडि दूरी ॥<br>
+
नाँघि हिवंचल जो तहँ जाई । अमृत-मूरि-पाइ सो खाई ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
एहि बाट पर नारद बैठ कटक कै साज ।<br>
+
जो ओहि पेलि पईठै, करै दुवौ जग राज ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
`हौं' कहतै भए ओट, पियै खंड मोसौं किएउ ।<br>
+
भए बहु फाटक कोट, मुहमद अब कैसे मिलहिं ॥16॥<br><br>
+
 
+
टा-टुक झाँकहु सातौ खंडा । खंडै खंड लखहु बरम्हंडा ॥<br>
+
पहिल खंड जो सनीचर नाऊँ । लखि न अँटकु, पौरी महँ ठाऊँ ॥<br>
+
दूसर खंड बृहस्पति तहँवाँ । काम-दुवार भोग-घर जहँवाँ ॥<br>
+
तीसर खंड जो मंगल जानहु । नाभि-कँवल महँ ओहि अस्थानहु ॥<br>
+
चौथ खंड जो आदित अहई । बाईं दिसि अस्तन महँ रहई ॥<br>
+
पाँचव खंड सुक्र उपराहीं ।कंठ माहँ औ जीभ-तराहीं ॥<br>
+
छठएँ खंड बुद्ध कर बासा । दुइ बौंहन्ह के बीच निवासा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
सातवँ सोम कपार महँ, कहा सो दसवँ दुआर ।<br>
+
जो वह पवँरि उघारै सो बड सिद्ध अपार ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
जौ न होत अवतार, कहाँ कुटुम परिवार सब ।<br>
+
झूठ सबै संसार, मुहमद चित्त न लाइए ॥17॥<br><br>
+
 
+
ठा-ठाकुर बड आप गोसाईं । जेइ सिरजा जग अपनिहि नाईं ॥<br>
+
आपुहि आपु जौ देखै चहा । आपनि फ्रभुता आपु सौं कहा ॥<br>
+
सबै जगत दरपन कै लेखा । आपुहि दरपन, आपुहि देखा ॥<br>
+
आपुहि बन औ आपु पखेरू । आपुहि सौजा, आपु अहेरू ॥<br>
+
आपुहि पुहुप फूलि बन फूले । आपुहि भँवर बास-रस भूले ॥<br>
+
आपुहि फल, आपुहि रखवारा । आपुहि सो रस चाखनहारा ॥<br>
+
आपुहि घट घट महँ मुख चाहै । आपुहि आपन रूप सराहै ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
आपुहि कागद, आपु मसि, आपुहि लेखनहार ।<br>
+
आपुहि लिखनी, आखर, आपुहि पँडित अपार ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
केहु नहिं लागिहि साथ, जब गौनब कबिलास महँ ।<br>
+
चलब झारि दोउ हाथ, मुहमद यह जग छौडि कै ॥18॥<br><br>
+
 
+
डा-डरपहु मन सरगहि खोई । जेहि पाछे पछिताव न होई ॥<br>
+
गरब करै, जो हौं-हौं करई । बैरी सोइ गोसाइँ क अहई ॥<br>
+
जो जाने निहचय है मरना । तेहि कहँ `मोर तोर' का करना ?॥<br>
+
नैन, बैन सरबन बिधि दीन्हा । हाथ पाँव सब सेबक कीन्हा ॥<br>
+
जेहिके राज भोग-सुख करई । लेइ सवाद जगत जस चहई ॥<br>
+
सो सब पूछिहि, मैं जो दीन्हा । तैं ओहि कर कस अवगुन कीन्हा ॥<br>
+
कौन उतर, का करब बहाना । बोवै बबुर, लवै कित धाना ? ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
कै किछु लेइ, न सकब तब, नितिहि अवधि नियराइ ।<br>
+
सो दिन आइ जो पहुँचै, पुनि किछु कीन्ह न जाई ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
जेइ न चिन्हारी कीन्ह, यह जिउ जौ लहि पिंड महँ ।<br>
+
पुनि किछु परै न चीन्हिह, मुहमद यह जग धुंध होइ ॥19॥<br><br>
+
 
+
ढा-ढारे जो रकत पसेऊ । सो जाने एहि बात क भेऊ ॥<br>
+
जेहि कर ठाकुर पहरे जागै । सो सेवक कस सोवै लागै ?॥<br>
+
जो सेवक सोवै चित देई । तेहि ठाकुर नहिं मया करेई ॥<br>
+
जेइ अवतरि उन्ह कहँ नहिं चीन्हा । तेइ जनम अँबरिथा कीन्हा ॥<br>
+
मूँदे नैन जगत महँ अवना । अंधधुंध तैसे तै गवना ॥<br>
+
लेए किछु स्वाद जागि नहिं पावा । भरा मास तेइ सोइ गँवावा ॥<br>
+
रहै नींद-दुख-भरम लपेटा । आइ फिरै तिन्ह कतहुँ न भेंटा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
घावत बीते रैनि दिन, परम सनेही साथ ।<br>
+
तेहि पर भयउ बिहान जब रोइ रोइ मींजै हाथ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
लछिमी सत कै चेरि, लाल करे बहु, मुख चहै ।<br>
+
दीठि न देखै फेरि, मुहमद राता प्रेम जो ॥20॥<br><br>
+
 
+
ना-निसता जो आपु न भएउ । सो एहि रसहि मारि विष किएऊ ॥<br>
+
यह संसार झूठ, थिर नाहीं ।उठहि मेघ जेउँ जाइ बिलाहीं ॥<br>
+
जो एहि रस के बाएँ भएऊ । तेहि कहँ रस विषभर होइ गएऊ ॥<br>
+
तेइ सब तजा अरथ बेवहारू । और घर बार कुटुम परिवारू ॥<br>
+
खीर खाँड तेहि मीठ न लागे । उहै बार होइ भिच्छा माँगै ॥ <br>
+
जस जस नियर होइ वह देखै । तस तस जगत हिया महँ लेखै ॥<br>
+
पुहुमी देखि न लावै दीठी । हेरै नवै न आपनि पीठी ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
छोडि देहु सब धंधा, काढि जगत सौ हाथ ॥<br>
+
घर माया कर छोडि कै, धरु काया कर साथ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
साँई के भंडारु, बहु मानिक मुकुता भरे।<br>
+
मन-चोरहि पैसारु, मुहमद तौ किछु पाइए ॥21॥<br><br>
+
 
+
ता-तप साधहु एक पथ लागे । करहु सेव दिन राति, सभागे !॥<br>
+
ओहि मन लावहु, रहै न रूठा । छोडहु झगरा, यह जग झूठा ॥<br>
+
जब हंकार ठाकुर कर आइहि । एक घरी जिउ है न पाइहि ॥<br>
+
ऋतु बसंत सब खेल धमारी । दगला अस तन, चढब अटारी ! ॥<br>
+
सोइ सोहागिनि जाहि सोहागू । कंत मिलै जो खेलै फागू ॥<br>
+
कै सिंगार सिर सेंदुर मेलै । सबहि आइ मिलि चाँचरि केलै ॥<br>
+
औ जो रहै गरब कै गोरी । चढै दुहाग, जरै जस होरी ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
खेलि लेहु जस खेलना, ऊख आगि देइ लाइ ।<br>
+
झूमरि खेलहु झूमि कै पूजि मनोरा गाइ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
कहाँ तें उपने आइ, सुधि बुधि हिरदय उपजिए ।<br>
+
पुनि कहँ जाहिं समाइ, मुहमद सो खँड खोजिए ॥22॥<br><br>
+
 
+
था-थापहु बहु ज्ञान बिचारू । जेहि महँ सब समाइ संसारू ॥<br>
+
जैसी अहै पिरथिमी सगरी । तैसिहि जानहु काया-नगरी ॥<br>
+
तन महँ पीर औ बेदन पूरी । तन महँ बैद औ ओषद मूरी ॥<br>
+
तन महँ विष औ अमृत बसई । जानै सो जो कसौटी कसई ॥<br>
+
का भा पढे गुने औ लिखे ? करनी साथ किए औ सिखे ॥<br>
+
आपुहि खोइ ओहि जो पावा । सो बीरौ मनु लाइ जमावा ॥<br>
+
जो ओहि हेरत जाइ हेराई । सो पावै अमृत-फल खाई ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
आपुहि खौए पिउ मिलै, पिउ खोए सब जाइ ।<br>
+
देखहु बूझि बिचार मन, लेहु न हेरि हेराइ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
कटु है पिउ कर खोज; जो पावा सो मरजिया ।<br>
+
तह नहिं हँसी, न रोज; मुहमद ऐसै ठाँवँ वह ॥23॥<br><br>
+
 
+
दा-दाया जाकह गुरु करई । सो सिख पंथ समुझि पग धरई ॥<br>
+
सात खंड औ चारि निसेनी । अगम चढाव, पंथ तिरबेनी ॥<br>
+
तौ वह चढै जौ गुरू चढावै । पाँव न डगै, अधिक बल पावै ॥<br>
+
जो गुरु सकति भगति भा चेला । होइ खेलार खेल बहु खेला ॥<br>
+
जौ अपने बल चढि कै नाँघा । सो खसि परा, टूटि गइ जाँघा ॥<br>
+
नारद दौरि संग तेहि मिला । लेइ तेहि साथ कुमारग चला ॥<br>
+
तेली-बैल जो निसि दिन फिरई । एकौ परग न सो अगुसरई ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
सोइ सोधु लागा रहै जेहि चलि आगे जाइ ।<br>
+
नतु फिरि पाछे आवई, मारग चलि न सिराइ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
सुनि हस्ति कर नाव, अँधरन्ह टोवा धाइ कै ।<br>
+
जेइ टोवा जेहि ठावँ, मुहमद सो तैसे कहा ॥24॥<br><br>
+
 
+
धा-धावहु तेहि मारग लागे । जेहि निसतार होइ सब आगे ॥<br>
+
बिधिना के मारग हैं ते ते । सरग-नखत तन-रोवाँ जेते ॥<br>
+
जेइ हेरा तेइ तहँवैं पावा । भा संतोष, समुझि मन गावा ॥<br>
+
तेहि महँ पंथ कहौं भल गाई । जेहि दूनौ जग छाज बडाई ॥<br>
+
सो बड पंथ मुहम्मद केरा । है निरमल कबिलास बसेरा ॥<br>
+
लिखि पुरान बिधि पठवा साँचा । भा परवाँन, दुवौ जग बाँचा ॥<br>
+
सुनत ताहि नारद उठि भागै । छूटै पाप, पुन्नि सुनि लागै ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
वह मारग जो पावै सो पहुँचै भव पार ।<br>
+
जो भूला होइ अनतहि तेहि लूटा बटपार ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
साईं केरा बार, जो थिर देखै औ सुनै ।<br>
+
नइ नइ करै जोहार, मुहमद निति उठि पाँच बेर ॥25॥<br><br>
+
 
+
ना-नमाज है दीन क थूनी । पढै नमाज सोइ बड गूनी ॥<br>
+
कही तरीकत चिसती पीरू । उधरति असरफ औ जहँगीरू ॥<br>
+
तेहि के नाव चढा हौ धाई । देखि समुद-जल जिउ न डेराई ॥<br>
+
जेहि के एसन खेवक भला । जाइ उतरि निरभय सो चला ॥<br>
+
राह हकीकत परै न चूकी । पैठि मारफत मार बुडूकी ॥<br>
+
ढूँढि उठै लेइ मानिक मोती । जाइ समाइ जोति महँ जोती ॥<br>
+
जेहि कहँ उन्ह अस नाव चढावा । कर गहि तीर खेइ लेइ आवा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
साँची राह सरीअत, जेहि बिसवास न होइ ।<br>
+
पाँव राख तेहि सीढी निभरम पहुँचै सोइ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
जेइ पावा गुरु मीठ, सो सुख-मारग महँ चलै ।<br>
+
सुख अनंद भा डीठ, मुहमद साथी पोढ जेहि ॥26॥<br><br>
+
 
+
पा-पाएउँ गुरु मोहदी मीठा । मिला पंथ सो दरसन दीठा ॥<br>
+
नावँ पियार सेख बुरहानू । नगर कालपी हुत गुरु-थानू ॥<br>
+
औ तिन्ह दरस गोसाईं पावा । अलहदाद गुरु पंथ लखावा ॥<br>
+
अलहदाद गुरु सिद्ध नवेला । सैयद मुहमद के वै चेला ॥<br>
+
सैयद मुहमद दीनहिं साँचा । दानियाल सिख दीन्ह सुबाचा ॥<br>
+
जुग जुग अमर सो हजरत ख्वाजे । हजरत नबी रसूल नेवाजे ॥<br>
+
दानियाल तहँ परगट कीन्हा । हजरत ख्वाज खिजिर पथ दीन्हा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
खडग कीन्ह उन्ह जाइ कहँ, देखि डरै इबलीस ।<br>
+
नावँ सुनत सो बागै, धुनै ओट होइ सीस ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
देखि समुद महँ सीप,बिनु बूडे पावै नहीं ।<br>
+
होइ पतंग जल-दीप मुहमद तेहि धँसि लीजिए ॥27॥<br><br>
+
 
+
फा फल मीठ जो गुरु हुँत पावै । सो बीरौ मन लाइ जमावै ॥<br>
+
जौ पखारि तन आपन राखै । निसि दिन जागै सो फल चाखै ॥<br>
+
चित झूलै जस झूलै ऊखा । तजि कै दोउ नींद औ भूखा ॥<br>
+
चिंता रहै ऊख पहँ सारू । भूमि कुल्हाडी करै प्रहारू ॥<br>
+
तन कोल्हू मन कातर फेरै । पाँचौ भूत आतमहि पेरै ॥<br>
+
जैसे भाठी तप दिन राती । जग-धंधा जारै जस बाती ॥<br>
+
आपुहि पेरि उडावै खोई । तब रस औट पाकि गुड होई ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
अस कै रस औटावहु जामत गुड होइ जाइ । <br>
+
गुड ते खाँड मीठि भइ, सब परकार मिठाइ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
धूप रहै जग छाइ, चहूँ खंड संसार महँ ।<br>
+
पुनि कहँ जाइ समाइ,मुहमद सो खंड खोजिए ॥28॥<br><br>
+
 
+
बा-बिनु जिउ तन अस अँधियारा । जौं नहिं होत नयन उजियारा ॥<br>
+
मसि क बुंद जो नैनन्ह माहीं । सोई प्रेम-अंस परछाहीं ॥<br>
+
ओहि जोति सौं परखै हीरा । ओहि सौ निरमल सकल सरीरा ॥<br>
+
उहै जोति नैनन्ह महँ आवै । चमकि उठै जस बीजू देखावे ॥<br>
+
मग ओहि सगरे जाहिं बिचारू । साँकर मुँह तेहि बड बिसतारू ॥<br>
+
जहवाँ किछु नहिं, है सत करा । जहाँ छूँछ तहँ वह रस भरा ॥<br>
+
निरमल जोति बरनि नहिं जाई । निरखि सुन्न यह सुन्न समाई ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
माटी तें जल निरमल, जल तें निरमल बाउ ।<br>
+
बाउहु तें सुठि निरमल, सुनु यह जाकर भाउ ॥<br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
इहै जगत कै पुन्न, यह जप तप सब साधना ।<br>
+
जानि परै जेहि सुन्न, मुहमद सोई सिद्ध भा ॥29॥<br><br>
+
 
+
भा-भल सोइ जो सुन्नहि जानै । सुन्नहि तें सब जग पहिचानै ॥<br>
+
सुन्नहि तें है सुन्न उपाती । सुन्नहि तें उपजहिं बहु भाँती ॥<br>
+
सुन्नहि माँझ इंद्र बरम्हंडा । सुन्नहि तें टीके नवखंडा ॥<br>
+
सुन्नहि तें उपजे सब कोई । पुनि बिलाई सब सुन्नहि होई ॥<br>
+
सुन्नहि सात सरग उपराहीं । सुन्नहि सातौ धरति तराहीं ॥ <br>
+
सुन्नहि ठाट लाग सब एका । जीवहिं लाग पिंड सगरे का ॥<br>
+
सुन्नम सुन्नम सब उतिराई । सुन्नहि महँ सब रहे समाई ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
सुन्नहि महँ मन-रूख जस काया महँ जीउ ।<br>
+
काठी माँझ आगि जस, दूध माहँ जस घीउ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
जावँन एकहि बूँद, जामै देखहु छीर सब ।<br>
+
मुहमद मोति समुद, काढहु मथनि अरंभ कै ॥30॥<br><br>
+
 
+
मा-मन मथन करै तन खीरू । दुहै सोइ जो आपु अहीरू ॥ <br>
+
पाँचौ भूत आतमहि मारै । दरब-गरब करसी कै जारै ॥<br>
+
मन माठा सम अस कै धौवै । तन खैला तेहि माहँ बिलोवै ॥<br>
+
जपहु बुद्धि कै दुइ सन फेरहु । दही चूर अस हिया अभेरहु ॥<br>
+
पछवाँ कढुई कैसन फेरहु । ओहि जोति महँ जोति अभेरहु ॥<br>
+
जस अंतरपट साढी फूटै । निरमल होइ मया सब छूटै ॥<br>
+
माखन मूल उठै लेइ जोती । समुद माँह जस उलथै मोती ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
जस घिउ होइ जराइ कै तस जिउ निरमल होइ ।<br>
+
महै महेरा दूरि करि, भौग करै सुख सोइ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
हिया कँवल जस फूल, जिउ तेहि महँ जस बासना ॥<br>
+
तन तजि मन महँ भूल, मुहमद तब पहचानिए ॥31॥<br><br>
+
 
+
जा-जानहु जिउ बसै सो तहवाँ । रहै कवँल-हिय संपुट जहँवाँ ॥<br>
+
दीपक जैस बरत हिय-आरे । सब घर उजियर तेहि उजियारे ॥<br>
+
तेहि महँ अंस समानेउ आई । सुन्न सहज मिलि आवै जाई ॥<br>
+
तहाँ उठै धुनि आउंकारा । अनहद सबद होइ झनकारा ॥<br>
+
तेहि महँ जोति अनूपम भाँती । दीपक एक, बरै दुइ बाती ॥<br>
+
एक जो परगट होइ उजियारा । दूसर गुपुत सो दसवँ दुवारा ॥<br>
+
मन जस टेम, प्रेम दीया । आसु तेल, दम बाती कीया ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
तहँवा जम जस भँवरा फिरा करै चहुँ पास ।<br>
+
मीचु पवन जब पहुँचै, लेइ फिरै सो बास ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
सुनहु बचन एक मोर, दीपक जस आरे बरै ।<br>
+
सब घर होइ अँजोर, मुहमद तस जिउ हीय महँ ॥32॥<br><br>
+
 
+
 
+
रा -रातहु अब तेहि के रंगा । बेगि लागु प्रीतम के संगा ॥<br>
+
अरध उरध अस है दुइ हीया । परगट, गुपुत बरै जस दीया ॥<br>
+
परगट मया मोह जस लावै । गुपुत सुदरसन आप लखावै ॥<br>
+
अस दरगाह जाइ नहिं पैठा । नारद पँवरि कटक लेइ बैठा ॥<br>
+
ताकहँ मंत्र एक है साँचा । जो वह पढै जाइ सो बाँचा ॥<br>
+
पंडित पढै सो लेइ लेइ नाऊँ । नारद छाँडि देइ सो ठाऊँ॥<br>
+
जेकरे हाथ होइ वह कूँजी । खोलि केवार लेइ सो पूँजी ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
उगरे नैन हिया कर , आछै दरसन रात ।<br>
+
देखै भुवन सो चौदहौ औ जानै सब बात ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
कंत पियारे भेंट, देखौ तूलम तूल होइ ।<br>
+
भए बयस दुइ हेंठ, मुहमद निति सरवरि करै ॥33॥<br><br>
+
 
+
ला-लखई सोई लखि आवा । जो एहि मारग आपु गँवावा ॥<br>
+
पीउ सुनत धनि आपु बिसारे । चित्त लखै,तन खोइ अडारै ॥<br>
+
`हौं हौं करब डारहु खोई । परगट गुपुत रहा भरि सोई ॥<br>
+
बाहर भीतर सोइ समाना । कौतुक सपना सो निजु जाना ॥<br>
+
सोइ देखै औ सोई गुनई । सोई सब मधुरी धुनि सुनई ॥<br>
+
सोई करै कीन्ह जो चहई । सोई जानि बूझि चुप रहई ॥<br>
+
सोई घट घट होइ रस लेई । सोइ पूछै, सोइ ऊतर देई ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
सोई साजै अँतरपट, खेलै आपु अकेल ।<br>
+
वह भूला जग सेंती, जग भूला ओहि खेल ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
जौ लगि सुनै न मीचु, तौ लगि मारै जियत जिउ । <br>
+
कोई हुतेउ न बीचु, मुहमद ऐकै होइ रहै ॥34॥<br><br>
+
 
+
वा-वह रूप न जाइ बखानी । अगम अगोचर अकथ कहानी ॥<br>
+
छंदहि छंद भएउ सो बंदा । छन एक माहँ हँसी रोवंदा ॥<br>
+
बारे खेल, तरुन वह सोवा । लउटी बूढ लेइ पुनि रोवा ॥<br>
+
सो सब रंग गोसाईं केरा । भा निरमल कबिलास बसेरा ॥<br>
+
सो परगट महँ आइ भुलावै । गुपत में आपन दरस देखावै ॥<br>
+
तुम अनु गुपुत मते तस सेऊ । ऐसन सेउ न जानै केऊ ॥<br>
+
आपु मरे बिनु सरग न छूवा । आँधर कहहिं, चाँद कहँ ऊवा ?<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
पानी महँ जस बुल्ला, तस यह जग उतिराइ ।<br>
+
एकहि आबत देखिए, एक है जगत बिलाइ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
दीन्ह रतन बिधि चारि, नैन, बैन, सरबन्न मुख ।<br>
+
पुनि जब मेटिहि मारि, मुहमद तब पछिताब मैं ॥35॥<br><br>
+
 
+
सा-साँसा जौ लहि दिन चारी । ठाकुर से करि लेहु चिन्हारी ॥<br>
+
अंध न रहहु, होहु डिठियारा । चीन्हि लेहु जो तोहि सँवारा ॥<br>
+
पहिले से जो ठाकुर कीजिय । ऐसे जियन मरन नहिं छीजिय ॥<br>
+
छाँडहु घिउ औ मछरी माँसू । सूखे भोजन करहु गरासू ॥<br>
+
दूध, माँसु, घिउ कर न अहारू । रोटी सानि करहु फरहारू ॥<br>
+
एहि बिधि काम घटावहु काया । काम, क्रोध, तिसना, मद माया ॥<br>
+
सब बैठहु बज्रासन मारी । गहि सुखमना पिंगला नारी ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
प्रेम तंतु तस लाग रहु करहु ध्यान चित बाँधि । <br>
+
पारस जैस अहेर कहँ लाग रहै सर साधि ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
अपने कौतुक लागि, उपजाएन्हि बहु भाँति कै ।<br>
+
चीन्हि लेहु सो जागि, मुहमद सोइ न खोइए ॥36॥<br><br>
+
 
+
खा-खेलहु, खेलहु ओहि भेंटा । पुनि का खेलहु, खेल समेटा ॥<br>
+
कठिन खेल औ मारग सँकरा । बहुतन्ह खाइ फिरे सिर टकरा ॥<br>
+
मरन-खेल देखा सो हँसा । होइ पतंग दीपक महँ धँसा ॥<br>
+
तन-पतंग कै भिरिंग कै नाई । सिद्ध होइ सो जुग जुग ताई ॥<br>
+
बिनु जिउ दिए न पावै कोई । जो मरजिया अमर भा सोई ॥<br>
+
नीम जो जामै चंदन पासा । चंदन बेधि होइ तेहि बासा ॥<br>
+
पावँन्ह जाइ बली सन टेका । जौ लहि जिउ तन, तौलहि भेका ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
अस जानै है सब महँ औ सब भावहि सोइ ।<br>
+
हौं कोहाँर कर माटी , जो चाहै सो होइ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
सिद्ध पदारथ तीनि, बुद्धि, पावँ औ सिर, कया । <br>
+
पुनि लेइहि सब छीनि, मुहमद तब पछिताब मैं ॥37॥<br><br>
+
 
+
सा साहस जाकर जग पूरी । सो पावा वह अमृत-मूरी ॥<br>
+
कहौ मंत्र जो आपनि पूँजी । खोलु केवारा ताला कूँजी ॥<br>
+
साठि बरिस जो लपई झपई । छन एक गुपुत जाप जो जपई ॥<br>
+
जानहु दुवौ बराबर सेवा । ऐसन चलै मुहमदी खेवा ॥<br>
+
करनी करै जो पूजै आसा । सँवरे नाँव जो लेइ लेइ साँसा ॥<br>
+
काठी घँसत उठै जस आगी । दरसन देखि उठै तस जागी ॥<br>
+
जस सरवर महँ पंकज देखा । हिय कै आँखि दरस सब लेखा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
जासु कया दरपन कै देखु आप मुँह आप ।<br>
+
आपुहि आपु जाइ मिलु जहँ नहिं पुन्नि न पाप ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
मनुवाँ चंचल ढाँप, बरजे अहथिर ना रहै ।<br>
+
पाल पेटारे साँप, मुहमद तेहि बिधि राखिए ॥ 38॥<br><br>
+
 
+
हा-हिय ऐसन बरजे रहई । बूडि न जाइ, बूड अति अहई ॥<br>
+
सोइ हिरदय कै सीढी चढई । जिमि लोहार घन दरपन गढई ॥<br>
+
चिनगि जोति करसी तें भागै । परम तंतु परचावै लागै ॥<br>
+
पाँच दूत लोहा गति तावै । दुहुँ साँस भाठी सुलगावै ॥<br>
+
कया ताइ कै खरतर करई । प्रेम के सँडसी पोढ कै धरई ॥<br>
+
हनि हथेव हिय दरपन साजै । छोलनी जाप लिहे तन माँजै ॥<br>
+
तिल तिल दिस्टि जोति सहुँ ठानै । साँस चढाइ कै ऊपर आनै ॥ <br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
तौ निरमल मुख देखै जोग होइ तेहि ऊप ।<br>
+
होइ डिठियार सो देखै अंधन के अँधकूप ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
जेकर पास अनफाँस, कहु हिय फिकिर सँभारि कै ।<br>
+
कहत रहै हर साँस, मुहमद निरमल होइ तब ॥39॥<br><br>
+
 
+
खा -खेलन औ खेल पसारा । कठिन खेल औ खेलनहारा ॥<br>
+
आपुहि आपुहि चाह देखावा । आदम-रूप भेस धरि आवा ॥<br>
+
अलिफ एक अल्ला बड सोई । दाल दीन दुनिया सब कोई ॥<br>
+
मीम मुहमद प्रीति पियारा । तिनि आखर यह अरथ बिचारा ॥<br>
+
मुख बिधि अपने हाथ उरेहा । दुइ जग साजि सँवारा देहा ॥<br>
+
कै दरपन अस रचा बिसेखा । आपन दरस आप महँ देखा ॥<br>
+
जो यह खोज आप महँ कीन्हा तेइ आपुहि खोजा, सब चीन्हा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
भागि किया दुइ मारग, पाप पुन्नि दुइ ठाँव ।<br>
+
दहिने सो सुठि दाहिने, बाएँ सो सुठि बावँ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
भा अपूर सब ठावँ गुडिला मोम सँवारि कै ।<br>
+
राखा आदम नाव, मुहमद सब आदम कहै ॥40॥<br><br>
+
 
+
औ उन्ह नावँ सीखि जौ पावा । अलख नाव लेइ सिद्धू कहावा ॥<br>
+
अनहद ते भा आदम दूजा । आप नगर करवावै पूजा ॥<br>
+
घट घट महँ होइ निति सब ठाऊँ । लाग पुकारै आपन नाऊँ ॥<br>
+
अनहद सुन्न रहै सब लागै । कबहुँ न बिसरे सोए जागै ॥<br>
+
लिखि पुरान महँ कहाँ बिसेखी । मोहिं नहिं देखहु, मैं तुम्ह देखी ॥<br>
+
तू तस सोइ न मोहिं बिसारसि । तू सेवा जीतै, नहिं हारसि ॥<br>
+
अस निरमल जस दरपन आगे । निसि दिन तोर दिस्टि मोहिं लागे ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
पुहुप बास जस हिरदय रहा नैन भरिपूरि ।<br>
+
नियरे से सुठि नीयरे, ओहट से सुठि दूरि ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
दुवौ दिस्टि टक लाइ, दरपन जो देखा चहै ।<br>
+
दरपन जाइ देखाइ, मुहमद तौ मुख देखिए ॥41॥<br><br>
+
 
+
छा-छाँडेहु कलंक जेहि नाहीं । केहु न बराबरि तेहि परछाहीं ॥<br>
+
सूरज तपै परै अति घामू । लागे गहन गहन होइ सामू ॥ <br>
+
ससि कलंक का पटतर दीन्हा । घटै बढे औ गहने लीन्हा ॥<br>
+
आगि बुझाइ ज पानी परई । पानि सूख, माटी सब सरई ॥<br>
+
सब जाइहि जो जग महँ होई । सदा सरबदा अहथिर सोई ॥<br>
+
निहकलंक निरमल सब अंगा । अस नाहीं केहु रूप न रंगा ॥<br>
+
जो जानै सो भेद न कहई । मन महँ जानि बूझि चुप रहई ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
मति ठाकुर कै सुनि कै, कहै जो हिय मझियार ।<br>
+
बहुरि न मत तासौं करै ठाकुर दूजी बार ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
गगरी सहस पचास जौ, कोउ पानी भरि धरै ।<br>
+
सूरुज दिपै अकास, मुहमद सब महँ देखिए ॥42॥<br><br>
+
 
+
ना-नारद तब रोइ पुकारा । एक जोलाहै सौं मैं हारा ॥<br>
+
प्रेम-तंतु निति ताना तनई । जप तप साधि सैकरा भरई ॥<br>
+
दरब गरब सब देइ बिथारी । गनि साथी सब लेहिं सँभारी ॥<br>
+
पाँच भूत माँडी गनि मलई । ओहि सौं मोर न एकौ चलई ॥<br>
+
बिधि कहँ सँवरि साज सो साजै । लेइ लेइ नावँ कूँच सौ माँजै ॥<br>
+
मन मुर्री देइ सब अँग मोरै । तन सो बिनै दोउ कर जोरै ॥<br>
+
सुथ सूत सो कया मँजाई । सीझा काम बिनत सिधि पाई ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
राउर आगे का कहै जो सँवरै मन लाइ ।<br>
+
तेहि राजा निति सँवरै पूछै धरम बोलाइ ।<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
तेहि मुख लावा लूक, समुझाए समुझै नहीं ।<br>
+
परै खरी तेहि चूक, मुहमद जेहि जाना नहीं ॥43॥<br><br>
+
 
+
मन सौं देइ कढनी दुइ गाढी । गाढे छीर रहै होइ साढी ॥<br>
+
ना ओहि लेखे राति न दिना । करगह बैठि साट सो बिना ॥<br>
+
खरिका लाइ करै तन घीसू । नियर न होइ, डरैं इबलीसू ॥<br>
+
भरै साँस जब नावै नरी । निसरै छूँछी, पैठै भरी ॥<br>
+
लाइ लाइ कै नरी चढाई । इललिलाह कै ढारि चलाई ॥<br>
+
चित डोलै नहिं खूँटी ढरई । पल पल पेखि आग अनुसरई ॥<br>
+
सीधे मारग पहुँचै जाइ । जो एहि भाँति करै सिधि पाई ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
चलै साँस तेहि मारग, जेहि से तारन होइ ।<br>
+
धरै पाव तेहि सीढी , तुरतै पहुँचै सोइ ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
दरपन बालक हाथ, मुख देखे दूसर गनै ।<br>
+
तस भा दुइ एक साथ, मुहमद एकै जानिए ॥44॥<br><br>
+
 
+
कहा मुहम्मद प्रेम-कहानी । सुनि सो ज्ञानी भए धियानी ॥<br>
+
चेलै समुझि गुरू सौं पूछा । देखहुँ निरखि भरा औ छूँछा ॥<br>
+
दुहुँ रूप है एक अकेला । औ अनबन परकार सो खेला ॥<br>
+
औ भा चहै दुवौ मिलि एका । को सिख देइ काहि को टेका ? ॥<br>
+
कैसे आपु बीच सो मेटै ? । कैसे आप हेराइ सो भेंटै ?॥<br>
+
जौ लहि आपु न झियत मरई । हँसै दूरि सौं बात न करई ॥<br>
+
तेहि कर रूप बदन सब देखै । उठै घरी महँ भाँति बिसेखै ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
सो तौ आपु हेरान है, तम मन जीवन खोइ ।<br>
+
चेला पूछै गुरू कहँ, तेहि कस अगरे होइ ?॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
मन अहथिर कै टेकु, दूसर कहना छाँडि दे ।<br>
+
आदि अंत जो एक, मुहमद कहु, दूसर कहाँ ॥45॥<br><br>
+
 
+
सुनु देला ! उत्तर गुरु कहई । एक होइ सो लाखन लहई ॥<br>
+
अहथिर कै जो पिंडा छाडै । औ लेइकै धरती महँ गाडै ॥ <br>
+
काह कहौं जस तू परछाहीं । जौ पै किछु आपन बस नाहीं ॥<br>
+
जो बाहर सो अंत समाना । सो जानै जो ओहि पहिचाना ॥<br>
+
तू हेरै भीतर सौं मिंता । सोइ करै जेहि लहै न चिंता ॥<br>
+
अस मन बूझि छाँडु;को तोरा ?। होहु समान, करहु मति `मोरा' ॥<br>
+
दुइ हुँत चलै न राज न रैयत । तब वेइ सीख जो होइ मग ऐयत ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
अस मन बूझहु अब तुम, करता है सो एक ।<br>
+
सोइ सूरत सोइ मूरत, सुनै गुरू सौं टेक ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
नवरस गुरु पहँ, भीज, गुरु=परसाद सो पिउ मिलै ।<br>
+
जामि उठै सो बीज, मुहमद सोई सहस बुँद ॥46॥<br><br>
+
 
+
माया जरि अस आपुहि खोई । रहै न पाप, मैलि गइ धौई ॥<br>
+
गौं दूसर भा सुन्नहि सुन्नू । कहँ कर पाप, कहाँ कर पुन्नू ॥<br>
+
आपुहि गुरू, आपु भा चेला । आपुहि सब औ आपु अकेला ।<br>
+
अहै सो जोगी, अहै सो भोगी । अहैं सो निरमल,अहै सो रोगी ॥<br>
+
अहै सो कडुवा, अहै सो मीठा । अहै सो आमिल, अहै सो सीठा ॥<br>
+
वै आपुहि कहँ सब महँ मेला । रहै सो सब महँ, खेलै खेला ॥<br>
+
उहै दोउ मिलि एकै भएऊ । बात करत दूसर होइ गएऊ ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
जो किछु है सो है सब, ओहि बिनु नाहिंन कोइ ।<br>
+
जो मन चाहा सो किया , जो चाहै सो होइ ।<br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
एक से दूसर नाहिं बाहर भीतर बूझि ले ।<br>
+
खाँडा दुइ न समाहिं, मुहमद एक मियान महँ ॥47॥<br><br>
+
 
+
पूछौं गुरु बात एक तोंही । हिया । सोच एक उपजा मोहीं ॥<br>
+
तोहि अस कतहुँ न मोहि अस कोई । जो किछु है सो ठहरा सोई ॥<br>
+
तस देखा मैं यह संसारा । जस सब भाँडा गढै कोहाँरा ॥<br>
+
काहू माँझ खाँड भरि धरई । काहू माँझ सो गोबर भरई ॥<br>
+
वह सब किछु कैसे कै कहई । आपु बिचारि बूझि चुप रहई ॥<br>
+
मानुष तौ नीकै सँग लागै । देखि घिनाइ त उठि कै भागै ॥<br>
+
सीझ चाम सब काहू भावा । देखि सरा सो नियर न आवा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
पुनि साईं सब जन मरै, औ निरमल सब चाहि ।<br>
+
जेहि न मैलि किछु लागै, लावा जाइ न ताहि ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
जोगि, उदासी दास, तिन्हहिं न दुख औ सुख हिया ॥<br>
+
घरही माहँ उदास, मुहमद सोइ सराहिए ॥48॥<br><br>
+
 
+
सुनु चेला ! जस सब संसारू । ओहि भाँति तुम कया बिचारू ॥<br>
+
जौ जिउ कया तौ दुख सौं भीजा । पाप के ओट पुन्नि सब छीजा ॥<br>
+
जस सूरुज उअ देख अकासू । सब जग पुन्नि उडै परगासू ॥<br>
+
भल ओ मंद जहाँ लगि होई । सब पर धूप रहै पुनि सोई ॥<br>
+
मंदे पर वह दिस्टि जो परई । ताकर मैलि नैन सौं ढरई ॥<br>
+
अस वह निरमल धरति अकासा । जैसे मिली फूल महँ बासा ॥<br>
+
सबै ठाँव औ सब परकारा । ना वह मिला, न रहै निनारा ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
ओहि जोति परछाहीं नवौ खंड उजियार ।<br>
+
सूरुज चाँद कै जोती, अदित अहै संसार ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
जेहि कै जोति-सरूप, चाँद सुरुज तारा भए ।<br>
+
तेहि कर रूप अनूप, मुहमद बरनि न जाइ किछु ॥49॥<br><br>
+
 
+
चेलै समुझि गुरू सौं पूछा । धरती सरग बीच सब छूँछा ॥<br>
+
कीन्ह न थूनी, भीति, न पाखा । केहि बिधि टेकि गगन यह राखा ?॥<br>
+
कहाँ से आइ मेघ बरिसावै । सेत साम सब होइ कै धावै ?॥<br>
+
पानी भरै समुद्रहि जाई । कहाँ से उरे, बरसि बिलाई ?॥<br>
+
पानी माँझ उठै बजरागी । कहाँ से लौकि बीजु भुइ लागी ?॥<br>
+
कहँवा सूर , चंद औ तारा । लागि अकास करहिं उजियारा?॥<br>
+
सूरुज उव बिहानहि आई । पुनि सो अथ कहाँ कहँ जाई ?॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
काहै चंद घटत है, कहे सूरुज पूर ।<br>
+
काहे होइ अमावस, काहे लागे मूर ?॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
जस किछु माया मोह, तैसे मेघा, पवन, जल ।<br>
+
बिजुरी जैसे कोह, मुहमद तहाँ समाइ यह ॥50॥<br><br>
+
 
+
सुनु चेला ! एहि जग कर अवना । सब बादर भीतर है पवना ॥<br>
+
सुन्न सहित बिधि पवनहि भरा । तहाँ आप होइ निरमल करा ॥<br>
+
पवनहि महँ जो आप समाना । सब भा बरन ज्यों आप समाना ॥<br>
+
जैस डोलाए बेना डोलै । पवन सबद होइ किछुहु न बोलै ॥<br>
+
पवनहि मिला मेघ जल भरई । पवनहि मिला बुंद भुइँ परई ॥<br>
+
पवनहिं माहँ जो बुल्ला होई । पवनहि फुटै, जाइ मिलि सोई ॥<br>
+
पवनहि पवन अंत होइ जाई । पवनहि तन कहँ छार मिलाई ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
जिया जंतु जत सिरजा, सब महँ पवन सो पूरि ।<br>
+
पवनहि पवन जाइ मिलि, आगि,बाउ,जल धूरि ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
निति सो आयसु होइ, साईं जो आज्ञा करै ॥<br>
+
पवन-परेवा सोइ, मुहमद बिधि राखे रहै ॥51॥<br><br>
+
 
+
बड करतार जिवन कर राजा । पवन बिना कछु करत न छाजा ॥<br>
+
तेहि पवन सौं बिजुरी साजा । ओहि मेघ परबत उपराजा ॥<br>
+
उहै मेघ सौं निकरि देखावै । उहै माँझ पुनि जाइ छपावै ॥<br>
+
उहै चलावै चहुँदिसि सोई । जस जस पाँव धरै जो कोई ॥<br>
+
जहाँ चलावै तहवाँ चलई । जस जस नावै तस तस नवई ॥<br>
+
वहुरि न आवै छिटकत झाँपै । तेहि मेघ सँग खन खन काँपै ॥<br>
+
जस पिउ सेवा चूखे रूठै । परै गाज पुहुमी तपि कूटै ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
अगिनि, पानि औ माटी, पवन फूल कर मूल ।<br>
+
उहई सिरजन कीन्हा, मारि कीन्ह अस्थूल ॥<br><br>
+
 
+
सोरठा
+
 
+
देखु गुरू, मन चीन्ह, कहाँ जाइ खोजत रहै ।<br>
+
जानि परै परबीन, मुहमद तेहि सुधि पाइए ॥52॥<br><br>
+
 
+
चेला चरचत गुरु-गन गावा । खोजत पूछि परम गति पावा ॥<br>
+
गुरु बिचारि चेला जेहि चीन्हा । उत्तर कहत भरम लेइ लीन्हा ॥<br>
+
जगमग देख उहै उजियारा । तीनि लोक लहि किरिन पसारा ॥<br>
+
ओहि ना बरन, न जाति अजाती । चंद न सुरुज; दिवस ना राती ॥<br>
+
कथा न अहै, अकथ भा रहई । बिना बिचार समुझि का परई ?॥<br>
+
सोऽहं सोऽहं बसि जो करई । जो बूझै सो धीरज धरई ॥<br>
+
कहै प्रेम कै बरनि कहानी । जो बूझै सो सिद्धि गियानी ॥<br><br>
+
 
+
दोहा
+
 
+
माटी कर तन भाँडा, माटी महँ नव खंड ।<br>
+
जे केहु खेलै माटि कहँ, माटी प्रेम प्रचंड ॥<br><br>
+
 
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सोरठा
+
 
+
गलि सोइ माटीं होइ, लिखनेहारा बापुरा ।<br>
+
जौ न मिटावै कोइ, लिखा रहै बहुतै दिना ॥53॥<br><br>
+

01:47, 13 अक्टूबर 2007 का अवतरण