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08:31, 27 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण
तमाम रात
वे कतरे
जो गिरते हैं छतों पर
सूरज की चमकती किरनें
जिन्हें सफ़ेद सोना बना देती हैं
उनके जेवर पहन कर देखो।
वे तमाम ख़्वाब
जो सोते-जागते देखते हैं
या खुदा
सब के सब ताबीर हो जायें।
तमाम रिश्ते,
जो बेइंतहा खूबसूरत हो सकते थे
मगर वक्त ने
जिन्हें ज़र्द कर दिया।
तमाम सूरज
जो रोशनी बिखरा सकते थे
मगर कभी धुँध ने उन्हें ज़मीं पर आने न दिया,
वे सब चमकें,
जमीं पर उतरें,
जर्रों को चूमें-सहलायें
वाकए हादसे सदमों
से घिरी कायनात
फिर से हँसे मुस्कुराये,
खेतों में पीले हरे
रंग फिर चहकें
हर घर में गेहूँ चावल की गंध महके,
तमाम सियासी खेल जो मंदिर में
अज़ान नहीं होने देते
और
मस्जिद में दिया नहीं जलने देते
दौर-ए गुज़िश्ता की बात हो जायें
हर ओर खिले प्यार की फसलें
यही उम्मीद अब दिल में रख लें...
अब के बरस
हाँ अब के बरस।