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ख़ून फिर ख़ून है / साहिर लुधियानवी
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04:15, 30 अप्रैल 2013
तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं
पत्थढर
पत्थर
बनकर
ख़ून चलता है तो रूकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से
Sharda suman
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