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"जीवनमुक्त / ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर

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यह जगत जिसके सहारे से सदा फूले-फले।
 
ज्ञान का दीया निराली ज्योति से जिसके जले।
 
आँच में जिसके पिघल कर काँच हीरे सा ढले।
 
जो बड़ा ही दिव्य है, तलछट नहीं जिसके तले।
 
हैं उसे कहते धरम, जिस से टिकी है, यह धारा।
 
तेज से जिसके चमकता है, गगन तारों-भरा।1।
 
  
पालने वाला धरम का है कहता धर्मवीर।
 
सब लकीरों में उसी की है बड़ी सुन्दर लकीर।
 
है सुरत्नों से भरी संसार में उसकी कुटीर।
 
वह अलग करके दिखाता है जगत को छीर नीर।
 
है उसी से आज तक मरजादा की सीमा बची।
 
सीढ़ियाँ सुख की उसी के हाथ की ही हैं रची।2।
 
 
एक-देशी वह जगत-पति को बनाता है नहीं।
 
बात गढ़ कर एक का उसको बताता है नहीं।
 
रंग अपने ढंग का उस पर बढ़ाता है नहीं।
 
युक्तियों के जाल में उसको फँसाता है नहीं।
 
भेद का उसके लगाता है वही सच्चा पता।
 
ठीक उसका भाव देती है वही सब को बता।3।
 
 
तेज सूरज में उसी का देख पड़ता है उसे।
 
वह चमकता बादलों के बीच मिलता है उसे।
 
वह पवन में और पानी में झलकता है उसे।
 
जगमगाता आग में भी वह निरखता है उसे।
 
राजती सब ओर है उसके लिए उसकी विभा।
 
पत्थरों में भी उसे उसकी दिखाती है प्रभा।4।
 
 
पेड़ में उसको दिखते हैं हरे पत्ते लगे।
 
वह समझता है सुयश के पत्र हैं उसके टँगे।
 
फूल खिलते हैं, अनूठे रंग में उसके रँगे।
 
फल, उसे, रस में उसी के, देख पड़ते हैं पगे।
 
एक रजकण भी नहीं है आँख से उसकी गिरा।
 
राह का तिनका दिखाता है उसे भेदों भरा।5।
 
 
सोचता है वह, जो मिलते हैं उसे पर्वत खड़े।
 
हैं उसी की राह में सब ओर ये पत्थर गड़े।
 
जो दिखाते हैं उसे मैदान छोटे या बड़े।
 
तो उसे मिलते वहाँ हैं ज्ञान के बीये पड़े।
 
वह समझता है पयोनिधि प्रेम से उसके गला।
 
जंगलों में भी उसे उसकी दिखाती है कला।6।
 
 
हैं उसी की खोज में नदियाँ चली जाती कहीं।
 
है तरावट भूलती उसकी कछारों को नहीं।
 
याद में उसकी सरोवर लोटता सा है वहीं।
 
निर्झरों के बीच छींटें हैं उसी की उड़ रहीं।
 
वह समझता है उसी की धार सोतों में बही।
 
झलमलाता सा दिखाता झील में भी है वही।7।
 
 
भीर भौंरों की उसी की भर रही है भाँवरें।
 
गान गुण उसका रसीले कण्ठ से पंखी करें।
 
भनाभना कर मक्खियाँ हर दम उसी का दम भरें।
 
तितलियाँ हो निछावर ध्यान उसका ही धरें।
 
वह समझता है, न है, झनकार झींगुर की डगी।
 
है सभी कीड़े मकोड़ों को उसी की धुन लगी।8।
 
 
है अछूती जोत उसकी मंदिरों में जग रही।
 
मसजिदों गिरजाघरों में भी दरसता है वही।
 
बौद्ध-मठ के बीच है दिखला रहा वह एक ही।
 
जैन-मंदिर भी, छुटा उसकी छटा से है नहीं।
 
ठीक इनमें दीठ जिसकी है नहीं सकती ठहर।
 
देख पड़ती है उसी की आँख में उसको कसर।9।
 
 
शद्म उसके ही लिए देता जगत को है जगा।
 
बाँग भी सबको उसी की ओर देती है लगा।
 
गान इन ईसाइयों का ताल औ लय में पगा।
 
इस सुरत को है उसी की ओर ले जाता भगा।
 
जो बिना समझे किसी को भी बनाता है बुरा।
 
वह समझता है, वही सच पर चलाता है छुरा।10।
 
 
हो तिलक तिरछा, तिकोना, गोल, आड़ा या खड़ा।
 
गौन हो, दस्तार हो, या बाल हो लाँबा बड़ा।
 
जो बनावट का बुरा धब्बा न हो इन पर पड़ा।
 
तो सभी हैं ठीक, देते हैं दिखा पारस गड़ा।
 
जो इन्हें लेकर झगड़ता या उड़ाता है हँसी।
 
जानता है, वह समझ है जाल में उसकी फँसी।11।
 
 
गेरुआ कपड़ा पहनना, घूमना, दम-साधना।
 
राख मलना, गरमियों में आग जलती तापना।
 
जंगलों में वास करना, तन न अपना ढाँकना।
 
बाँधाना कंठी, गले में सेल्हियों का डालना।
 
वह इन्हें मन जीत लेने की जुगुत है जानता।
 
जो न उतरा मैल तो सूखा ढचर है मानता।12।
 
 
पतजिवा, रुद्राक्ष, तुलसी की बनी माला रहे।
 
या कोई तसवीह हो या पोर उँगली की गहे।
 
या बहुत सी कंकड़ी लेकर कोई गिनना चहे।
 
या कि प्रभु का नाम अपनी जीभ से यों ही कहे।
 
लौ लगाने को बुरा इनमें नहीं है एक भी।
 
आँख में उसकी नहीं तो, काठ मिट्टी हैं सभी।13।
 
 
ध्यान, पूजा, पाठ, व्रत, उपवास, देवाराधना।
 
घूमना सब तीरथों में, आसनों को साधना।
 
योग करना, दीठ को निज नासिका पर बाँधना।
 
सैकड़ों संयम नियम में इन्द्रियों को नाधना।
 
वह समझता है सभी हैं ज्ञान-माला की लड़ी।
 
जो दिखावट की न भद्दी छींट हो इन पर पड़ी।14।
 
 
बौद्ध, त्रिपिटिक, बाइबिल, तौरेत, या होवे कुरान।
 
जिन्दबस्ता, जैन की ग्रन्थावली, या हो पुरान।
 
वेद-मत का ही बहुत कुछ है हुआ इनमें बखान।
 
है बहा बहु धार से इनमें उसी का दिव्य ज्ञान।
 
ठीक इसका भेद गुण लेकर वही है बूझता।
 
है बुरी वह आँख अवगुण ही जिसे है सूझता।15।
 
 
बुद्ध, जैन, ईसा, मुहम्मद, और मूसा को भला।
 
कौन कह सकता है, दुनिया को इन्होंने है छला।
 
सोच लो जश्रदश्त भी है क्या कहीं उलटा चला।
 
ये लगाकर आग दुनिया को नहीं सकते जला।
 
वह इसीसे है समझता वेद के पथ पर चढ़े।
 
ये समय और देश के अनुसार हैं आगे बढ़े।16।
 
 
बौद्ध, हिन्दू, जैन, ईसाई, मुसलमाँ, पारसी।
 
जो बुराई से बचें, रक्खे न कुछ उसकी लसी।
 
धर्म की मरजाद पालें हो सुरत हरि में बसी।
 
तो भले हैं ये सभी, दोनों जगह होंगे जसी।
 
वह उसी को है बुरा कहता किसी को जो छले।
 
है धरम कोई न खोटा ठीक जो उस पर चले।17।
 
 
बौद्ध-मत, हिन्दू-धरम, इसलाम या ईसाइयत।
 
हैं, जगत के बीच जितने जैन आदिक और मत।
 
वह बताता है सभों की एक ही है असलियत।
 
है स्वमत में निज विचारों के सबब हर एक रत।
 
ठौर है वह एक ही, यह राह कितनी हैं गयी।
 
दूध इनका एक है, केवल पियाले हैं कई।18।
 
 
वह क्रिया से है भली जी की सफाई जानता।
 
पंडिताई से भलाई को बड़ी है मानता।
 
वह सचाई को पखंडों में नहीं है सानता।
 
वह धरम के रास्ते को ठीक है पहचानता।
 
ज्ञान से जग-बीच रहकर हाथ वह धोता नहीं।
 
आड़ में परलोक की वह लोक को खोता नहीं।19।
 
 
तंग करना, जी दुखाना, छेड़ना भाता नहीं।
 
वह बनाता है, कभी सुलझे को उलझाता नहीं।
 
देखकर दुख दूसरों का चैन वह पाता नहीं।
 
एक छोटे कीट से भी तोड़ता नाता नहीं।
 
लोक-सेवा से सफल होकर सदा बढ़ता है वह।
 
धूल बनकर पाँव की जन शीश पर चढ़ता है वह।20।
 
 
धान, विभव, पद, मान, उसको और देते हैं झुका।
 
प्रेम बदले के लिए उसका नहीं रहता रुका।
 
वह अजब जल है उसे जाता है जो जग में फँका।
 
बैरियों से वह कभी बदला नहीं सकता चुका।
 
प्यार से है बाघ से विकराल को लेता मना।
 
वह भयंकर ठौर को देता तपोवन है बना।21।
 
 
हैं कहीं काले बसे, गोरे दिखाते हैं कहीं।
 
लाल, पीले, सेत, भूरे, साँवले भी हैं यहीं।
 
पीढ़ियाँ इनकी कभी नीची, कभी ऊँची रहीं।
 
रँग बदलने से बदलती दीठ है उसकी नहीं।
 
भेद वह अपने पराये का नहीं रखता कभी।
 
सब जगत है देश उसका जाति हैं मानव सभी।22।
 
 
वह समझता है सभी रज बीर्य से ही हैं जना।
 
मांस का ही है कलेजा दूसरों का भी बना।
 
आन जाने पर न किसकी आँख से आँसू छना।
 
दूसरे भी चाहते हैं मान का मुट्ठी चना।
 
खौलना जिसका किसी से भी नहीं जाता सहा।
 
है रगों में दूसरों की भी वही लहू बहा।23।
 
 
वह तनिक रोना, कलपना और का सहता नहीं।
 
हाथ धोकर और के पीछे पड़ा रहता नहीं।
 
बात लगती वह किसी को एक भी कहता नहीं।
 
चोट पहुँचाना किसी को वह कभी चहता नहीं।
 
जानता है दीन दुखियों के दरद को भी वही।
 
बेकसों की आह उससे है नहीं जाती सही।24।
 
 
ए चुडैलें चाह की उसको नहीं सकतीं सता।
 
प्यार वह निज वासनाओं से नहीं सकता जता।
 
मोह की जी में नहीं उसके उलहती है लता।
 
है कलेजे में न कोने का कहीं मिलता पता।
 
रोस की, जी में कभी उठती नहीं उसके लपट।
 
छल नहीं करता किसी से वह नहीं करता कपट।25।
 
 
गालियाँ भातीं नहीं, ताने नहीं जाते सहे।
 
आग लग जाती है कच्ची बात जो कोई कहे।
 
देख कर नीचा किसकी आँख कब ऊँची रहे।
 
ठोकरें खाकर भला किसी को नहीं आँसू बहे।
 
वह समझता है न इतना घाव करती है छुरी।
 
ठेस होती है बड़ी ही इस कलेजे की बुरी।26।
 
 
देख करके तोप को जाता कलेजा है निकल।
 
यह बुरी बंदूक रखकर जी नहीं सकता सम्हल।
 
बरछियाँ, तलवार, भाले हैं बना देते विकल।
 
गोलियाँ, बारूद, छर्रे, आँख करते हैं सजल।
 
उस समय तो और भी उसका तड़पता है जिगर।
 
जब समझता है कि इनमें है भरी जी की कसर।27।
 
 
क्यों बहाने को लहू हथियार सब जाते गढ़े।
 
दूसरों पर दूसरे फिर किसलिए जाते चढ़े।
 
किसलिए रणपोत, बनते और वे जाते मढ़े।
 
नासमझ का काम करते किसलिए लिक्खे पढ़े।
 
जो उसी की भाँति उठती प्यार की सब की भुजा।
 
तो दिखाती शान्ति की सब ओर फहराती धुजा।28।
 
 
पेट भरने के लिए कटता किसीका क्यों गला।
 
एक भाई के लिए क्यों दूसरा होता बला।
 
इस जगत में किसलिए जाता कभी कोई छला।
 
बहु बसा घर क्यों कलह की आग में होता जला।
 
ठीक सुन्दर नीति उसकी जो सदा होती चली।
 
तो कटी डालें दिखातीं आज दिन फूली फली।29।
 
 
है विभव किस काम का वह हो लहू जिसमें लगा।
 
आग उस धान में लगे जिसमें हुई कुछ भी दगा।
 
गर्व वह गिर जाय जिसका है सताना ही सगा।
 
धूल में वह पद मिले जो है कलंकों से रँगा।
 
वह विवश होकर सदा दुख से सुनाता है यही।
 
वह धरा धँस जाय जिस पर हैं कभी लोथें ढही।30।
 
 
यह भला है, यह बुरा है, वह समझता है सभी।
 
भूसियों में, छोड़कर चावल नहीं फँसता कभी।
 
जब ठिकाने है पहुँचता मोद पाता है तभी।
 
बात थोथी है नहीं मुँह से निकलती एक भी।
 
है जहाँ पर चूक उसकी आँख पड़ती है वहीं।
 
जड़ पकड़ता है उलझता पत्तियों में वह नहीं।31।
 
 
आदमी का ऐंठना, बढ़ना, बहकना, बोलना।
 
रूठना, हँसना, मचलना, मुँह न अपना खोलना।
 
संग बन जाना, कभी इन पत्तियों सा डोलना।
 
वह समझता है तराजू पर उसे है तोलना।
 
है उसी ने ही पढ़ी जी की लिखावट को सही।
 
गुत्थियाँ उसकी सदा है ठीक सुलझाता वही।32।
 
 
देखता अंधा नहीं, उजले न होते हैं रँगे।
 
दौड़ता लँगड़ा नहीं, सोये नहीं होते जगे।
 
क्यों न वह फिर रास्ते पर ठीक चलने से डगे।
 
हैं बहुत से रोग, जिसके एक ही दिल को लगे।
 
देखकर बिगड़ा किसी को वह नहीं करता गिला।
 
काम की कितनी दवाएँ हैं उसे देता पिला।33।
 
 
देखकर गिरते उठाता है, बिगड़ जाता नहीं।
 
वह छुड़ाता है फँसे को, और उलझाता नहीं।
 
राह भूले को दिखा देता है भरमाता नहीं।
 
है बिगड़ते को बनाता, आँख दिखलाता नहीं।
 
सर अंधेरों में भला किसका न टकराया किया।
 
वह अँधेरा दूर करता है, जलाता है दिया।34।
 
 
जीव जितने हैं जगत में, हैं उसे प्यारे बड़े।
 
दुख उसे होता है जो तिनका कहीं उनको गड़े।
 
एक चींटी भी कहीं जो पाँव के नीचे पड़े।
 
तो अचानक देह के होते हैं सब रोयें खड़े।
 
हैं छुटे उसकी दया से ये हरे पत्ते नहीं।
 
तोड़ते इनको उसे है पीर सी होती कहीं।35।
 
 
कँप उठे सब लोक पत्तो की तरह धरती हिले।
 
राज, धान जाता रहे, पद, मान, मिट्टी में मिले।
 
जीभ काटी जाय, फोड़ी जाय आँखें, मुँह सिले।
 
सैकड़ों टुकड़े बदन हो, पर्त चमड़े की छिले।
 
छोड़ सकता उस समय भी वह नहीं अपना धरम।
 
जब हैं हर एक रोयें नोचते चिमटे गरम।36।
 
 
धर्मवीरों की चले, सब लोग हो जावें भले।
 
भाइयों से भाइयों का जी न भूले भी जले।
 
चन्द्रमा निकले धरम का, पाप का बादल टले।
 
हे प्रभो संसार का हर एक घर फूले फले।
 
इस धारा पर प्यार की प्यारी सुधा सब दिन बहे।
 
शान्ति की सब ओर सुन्दर चाँदनी छिटकी रहे।37।
 
 
 
जीवनमुक्त
 
 
किसे नहीं ललना-ललामता मोहती।
 
किसे नहीं ललना-ललामता मोहती।
 
विफल नहीं होता उसका टोना कहीं।
 
विफल नहीं होता उसका टोना कहीं।

22:51, 8 मई 2013 का अवतरण

 

किसे नहीं ललना-ललामता मोहती।
विफल नहीं होता उसका टोना कहीं।
किसे नहीं उसके विशाल दृग भेदते।
किसे कुसुम सायत कंपित करता नहीं।1।

निज लपटों से करके दग्ध विपुल हृदय।
कलह, वैर, कुवचन-अंगारक प्रसवती।
करके भस्मीभूत विचार, विवेक को।
किसके उर में क्रोध आग नहिं दहकती।2।

अनुचित उचित विचार-विहीन, उपद्रवी।
प्रतिहिंसा-प्रिय, हठी, निमज्जित अज्ञता।
असहन-शील, कठोर, दांभिक, मंदधी।
किसे नहीं करती प्रमत्ता, मद-मत्ताता।3।

कहीं कान्त-स्वर-ग्राम रूप में है रमा।
कहीं सरस रस परिमल बन कर सोहता।
सुत-कलत्र ममता-स्वरूप में है कहीं।
मधुर मूर्ति से मोह किसे नहिं मोहता।4।

तीन लोक का राज तथा सारा विभव।
पा करके भी तृप्ति नहीं होती जिसे।
रुधिर-पात पर-पीड़न का जो हेतु है।
भला लोभ विचलित करता है नहिं किसे।5।

चाहे द्रोह, प्रमाद, असूया आदि हो।
चाहे हो मत्सर, चाहे हो पशुनता।
काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ जैसे अपार।
दोष हैं न, ये सकल दोष के हैं पिता।6।

अनुपम साधन तथा आत्मबल अतुल से।
जिसका जीवन इन दोषों से मुक्त है।
पूत-चरित लोकोत्तार-गुण-गरिमा-बलित।
वही इस अवनि-तल पर जीवनमुक्त है।7।

क्या सकामता उसमें होती है नहीं?
होती है, पर वह होती है सुरुचि-मय।
बन जाता है पर फलद औ पूत तम।
काम-बिशिख छू अति पावन उसका हृदय।8।

नहिं विलासिता हेतु बनी उसके लिए।
किसी काल में कामिनी-कुल-कमनीयता।
वरन उसे सब काल दिखा उसमें पड़ी।
उस महान महिमा-मय की महनीयता।9।

उस पावक सा पूत कोप उसका मिला।
जो कंचन को तपा बनाता है विमल।
या होता है वह उस बाल पतंग सा।
जो समुदित हो देता है तम-तोम दल।10।

उस आतप सा भी कह सकते हैं उसे।
जिसके पीछे सुखद सलिल है बरसता।
वह सुतप्त जल भी उसका उपमान है।
तन जिससे पाता है अनुपम निरुजता।11।

यह वह शासन है जिससे सुधारे कुधी।
यह वह नियमन है जिसमें है हित निहित।
वह प्रयोग है मुक्त जनों का कोप यह।
जिससे अविहित रत पाता है पथ विहित।12।

आत्म-त्याग का अति पुनीत मद पान कर
वह रहता है सदा विमुग्धा प्रमत्ता सा।
होती हैं इसलिए भूत-हित में रँगी।
सकल भावनाएँ उसकी मद-संभवा।13।

पर-दुख-कातरता पर वरता बंद्यता।
अहं मन्यता को मानवता पगों पर।
सदा निछावर करता है वह मुग्धा हो।
पर-हित-प्रियता पर गौरव-गरिमा अपर।14।

कर विलोप साधान नभ-तारक-पुंज का।
दिन-नायक सा नहिं होता उसका उदय।
समुदित होता है वह कुमुदिन-कान्त सा।
सप्रभ, अविकलित, रंजित, रख तारक निचय।15।

होता है उर मोह महत्ताओं भरा।
होती हैं भ्रम-मयी न उसकी पूर्तियाँ।
मधुमयता, ममता, विमुग्धाता में उसे।
विश्व-प्रेम की मिलती हैं शुचिर् मूर्तियां।16।

सुन्दर-स्वर लहरी उसकी चित-वृत्ति को।
ले जाती हैं खींच अलौकिक लोक में।
बहती है अति पूत प्रेम-धारा जहाँ।
भक्ति-सुधा-सँग दिव्य ज्ञान आलोक में।17।

भाव 'रसो वै स:' का उसमें है भरा।
परिमल करता है मानस को परिमलित।
पाठ सिखा देता है समता का उसे।
मनन-शीलता सुत-कलत्र ममता-जनित।18।

कभी लोक-सेवा-लोलुपता-रूप में।
कभी उच्चतम-प्रेम ललक की मूर्ति बन।
मुक्त जनों का लोभ विलसता है कभी।
पा भावुकता-लसित-लालसा-पूत-तन।19।

रज-समान गिन तीन लोक के राज को।
लोक चित्ता-रंजन-हित लालायित रहा।
बना रहा वह विहित लाभ का लालची।
सदा विभव तज भव-हित-धारा में बहा।20।

रक्त-पात नियमन मदान्धाता दमन का।
सत्य, न्याय, को समुचित मान प्रदान का।
उसके जी से लोभ न जाता है कभी।
जीव-दया, सच्ची स्वतन्त्रता दान का।21।