"चित्तौड़ की एक शरद रजनी / ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर
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निसार करके कवीक पति पर। | निसार करके कवीक पति पर। | ||
उमंग अपनी निकालते थे।14। | उमंग अपनी निकालते थे।14। | ||
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+ | तमोमयी शैल कन्दराएँ। | ||
+ | महा तिमिर-वान झाड़ियाँ सब। | ||
+ | कहो न क्यों आज जगमगाएँ। | ||
+ | स्वयं तम है प्रभा-मयी जब।15। | ||
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+ | बना हुआ था विशाल जंगल। | ||
+ | प्रकाश के पुंज का अखाड़ा। | ||
+ | मयंक-कर ने जहाँ सदल बल। | ||
+ | प्रचंड तम-तोम को पछाड़ा।16। | ||
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+ | प्रसून पर काश के विभावस। | ||
+ | विचित्र है चारुता दिखाती। | ||
+ | अमल धवल केश राशि पावस। | ||
+ | रची गयी ज्योति की जनाती।17। | ||
+ | |||
+ | विविध बगीचे अनेक उपवन। | ||
+ | विकास से हैं महा विकसित। | ||
+ | कि मेदिनी पर कला-निकेतन। | ||
+ | अनन्त तजकर हुआ प्रकाशित।18। | ||
+ | |||
+ | न एक सित पुष्प ही मनोहर। | ||
+ | ससाम्य-बश ओप में बढ़ा था। | ||
+ | हरे असित नील पुष्प-चय पर। | ||
+ | प्रकाश का रंग ही चढ़ा था।19। | ||
+ | |||
+ | समस्त क्यारी कलित हुई थी। | ||
+ | प्रभा बलित थी अखिल प्रणाली। | ||
+ | सुधा सरस कुंज में चुई थी। | ||
+ | दमक रही थी मलीन डाली।20। | ||
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+ | कटी छँटी बेलि बूटियों पर। | ||
+ | छँटी हुई ज्योति टिक रही थी। | ||
+ | हरी भरी बाँस खूँटियों पर। | ||
+ | किरण अछूती छिटक रही थी।21। | ||
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+ | खिले हुए फूल पर न केवल। | ||
+ | कमाल थी कौमुदी दिखाती। | ||
+ | मुँदे हुए थे अनेक उत्पल। | ||
+ | जिन्हें कला थी मुकुट पिन्हाती।22। | ||
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+ | समस्त समतल विशाल प्रान्तर। | ||
+ | प्रकाशमय थे बिछी रुई थी। | ||
+ | सु अंकुरित खेत खेत होकर। | ||
+ | प्रभा परम पल्लवित हुई थी।23। | ||
+ | |||
+ | प्रवेश करके विशद नगर में। | ||
+ | प्रकाश तमराशि खो रहा था। | ||
+ | डगर डगर औ बगर बगर में। | ||
+ | जगर मगर आज हो रहा था।24। | ||
+ | |||
+ | प्रशस्त प्रकार मन्दिरों में। | ||
+ | फटिक शिला शुभ्र लग गयी थी। | ||
+ | समग्र आँगन घरों दरों में। | ||
+ | नवल धवल ज्योति जग गयी थी।25। | ||
+ | |||
+ | अटारियाँ खिड़कियाँ मनोहर। | ||
+ | प्रकाश की कोठियाँ बनी थीं। | ||
+ | सुभग मुँडेरों सु कँगनियों पर। | ||
+ | लगी हुई बज्र की कनी थी।26। | ||
+ | |||
+ | हुए छतों पर विचित्र टोने। | ||
+ | समस्त छाजन ज्वलित हुई थी। | ||
+ | कला फिरी थी हरेक कोने। | ||
+ | झलक रही भूमि की सुई थी।27। | ||
+ | |||
+ | सकल गली ओ समस्त कूँचे। | ||
+ | चमक दमक चारु थे दिखाते। | ||
+ | चऊतरे चौखटे समूचे। | ||
+ | अजीब थे आज जगमगाते।28। | ||
+ | |||
+ | बना हुआ ठाट हाट का था। | ||
+ | रजतमयी सब दुकान ही थी। | ||
+ | सुचमकियों से बसन टँका था। | ||
+ | मिठाइयों पर सुधा बही थी।29। | ||
+ | |||
+ | भया प्रभावान भव्य भाजन। | ||
+ | हुआ विभूषण सुरत्न-मण्डित। | ||
+ | कलाबतू बदला बना सन। | ||
+ | अखिल उपस्कर हुए अलंकृत।30। | ||
+ | |||
+ | गिलम गलीचे मलिन दरी भी। | ||
+ | चमक दमक चारुता-मयी थी। | ||
+ | पड़ी सड़क में कुकंकरी भी। | ||
+ | प्रभावती पोत बन गयी थी।31। | ||
+ | |||
+ | सुधा धावल धाम ही न केवल। | ||
+ | हुआ प्रभा-पुंज से सुशोभन। | ||
+ | बुरा निकेतन महा मलिन थल। | ||
+ | सुदर्पणों सा बना सुदर्शन।32। | ||
+ | |||
+ | रचा हुआ घास का कुघर भी। | ||
+ | प्रदीप्त था, ज्योति भर रही थी। | ||
+ | पड़ी झोंपड़ी समस्त पर भी। | ||
+ | कला करामात कर रही थी।33। | ||
+ | |||
+ | कलित किरण थी प्रदीप्ति-बोरी। | ||
+ | प्रकाश में तेज सन गया था। | ||
+ | जकी चकी थी खड़ी चकोरी। | ||
+ | कवीकपित भानु बन गया था।34। | ||
+ | |||
+ | सुचाँदनी की चटक निकाई। | ||
+ | पयोधि का कान काटती थी। | ||
+ | जिसे बड़े चाव से बिलाई। | ||
+ | बिचार कर दूध चाटती थी।35। | ||
+ | |||
+ | निशा हुई थी महा समुज्ज्वल। | ||
+ | समस्त नभ श्वेत था दिखाता। | ||
+ | कभी अचानक बिहंग का दल। | ||
+ | प्रभात का राग था सुनाता।36। | ||
+ | |||
+ | दिगन्त में भूमि तल गगन पर। | ||
+ | त्रिलोक की स्वेतता बसी है। | ||
+ | वितुल कलितर्-कीत्ति-रूप धारकर। | ||
+ | स्वयंभु की या प्रकट लसी है।37। | ||
+ | |||
+ | महा सिताभा असीम नभ-तल। | ||
+ | प्रदीप्त करके हुई सुप्लावित। | ||
+ | निमग्न करके समग्र भूतल। | ||
+ | कि है पयोराशि पय प्रवाहित।38। | ||
+ | |||
+ | अमल सतोगुण विशुध्द उज्ज्वल। | ||
+ | स्वरूप धार कर प्रकट दिखाया। | ||
+ | विभा बलित सित सरोज दल या। | ||
+ | बसुंधरा पर गया बिछाया।39। | ||
+ | |||
+ | कलितकला जिस रुचिर नगरपर। | ||
+ | सुकान्ति का है प्रसार करती। | ||
+ | उसी नगर में महा मनोहर। | ||
+ | बिभावती एक है सुधारती।40। | ||
+ | |||
+ | रचे गुणी जन इसी धरा पर। | ||
+ | अनेक प्रसाद हैं चमकते। | ||
+ | सदैव जिनके कलश रुचिर तर। | ||
+ | दिनेश की भाँति हैं दमकते।41। | ||
+ | |||
+ | इन्हीं सुप्रसाद-पंक्ति-भीतर। | ||
+ | अपूर्व है एक हर्म्य शोभित। | ||
+ | विचित्र जिसकी बनावटों पर। | ||
+ | न दृष्टि किसकी हुई प्रलोभित।42। | ||
+ | |||
+ | इसी विशद हर्म्य में मनोहर। | ||
+ | प्रकोष्ठ है एक अति सुसज्जित। | ||
+ | जिसे कलाधर कला निराली। | ||
+ | थी कर रही सुरंजित।43। | ||
+ | |||
+ | शनै:-शनै: एक जन उसी पर। | ||
+ | प्रशान्त-गति से टहल रहा था। | ||
+ | प्रफुल्ल मुख कान्ति-मान होकर। | ||
+ | प्रसाद की ओर ढल रहा था।44। | ||
+ | |||
+ | विशाल-भुज-वक्ष यह युवा जन। | ||
+ | मयंक की माधुरी मनोहर। | ||
+ | विलोक कर था महा मुदित मन। | ||
+ | अपूर्व-उच्छ्वास-पूर्ण-अन्तर।45। | ||
+ | |||
+ | प्रकोष्ठ की कारु-कार्य-वाली। | ||
+ | खुली रुचिर सित-शिला-रची छत। | ||
+ | सकल-उपस्कर-सुरत्न-शाली। | ||
+ | सुबर्न-चूड़ा परम समुन्नत।46। | ||
+ | |||
+ | मयंक कर से चमक दमक कर। | ||
+ | मनोज्ञतर दृष्टि थे दिखाते। | ||
+ | जिन्हें युवा एक दृष्टि लख कर। | ||
+ | प्रमोद-पय-राशि पैर जाते।47। | ||
+ | |||
+ | जड़े हुए दिव्य रत्न सुन्दर। | ||
+ | निकालते ज्योति थे निराली। | ||
+ | बना युवा मन्त्र-मुग्ध लख कर। | ||
+ | हुई हृदय देश में दिवाली।48। | ||
+ | |||
+ | शिखर समुज्ज्वल,प्रदीप्त प्रान्तर। | ||
+ | अनेक पादप प्रकाश-मंडित। | ||
+ | सुकर-समाच्छन्न बहु सरोवर। | ||
+ | बिपुल बगीचे विभा-अलंकृत।49। | ||
+ | |||
+ | प्रकोष्ठ से दृष्टि पर पड़ रहे थे। | ||
+ | समस्त का कुछ अजब समा था। | ||
+ | युवा हृदय मधय गड़ रहे थे। | ||
+ | सुदृश्य प्रति रोम में रमा था।50। | ||
+ | |||
+ | कभी युवा देखता गगन-तल। | ||
+ | कभी धरातल विमुग्ध होकर। | ||
+ | कभी धावल धाम हर्म्य उज्ज्वल। | ||
+ | कभी समुद्दीप्त,शुभ्र परिसर।51। | ||
+ | |||
+ | पवन सुधा-सिक्त मन्द-गामी। | ||
+ | सकल कला-पूर्ण कल कलाधार। | ||
+ | सुचंद्रिका चारु-कीत्ति-कामी। | ||
+ | दिशा महा मंजु अति मनोहर।52। | ||
+ | |||
+ | युवा उन्हीं में रमा हुआ था। | ||
+ | शरीर की सुधि नहीं रही थी। | ||
+ | प्रमोद-पंकज खिला हुआ था। | ||
+ | विनोद की वेलि लहलही थी।53। | ||
+ | |||
+ | प्रतीच्य आकाश में इसी छन। | ||
+ | हुआ प्रकट एक दाग काला। | ||
+ | शनै: शनै: वह बना क्षुद्र घन। | ||
+ | पुन: हुआ मंजु मेघमाला।54। | ||
+ | |||
+ | अभी क्षितिज क्षुद्रभाग तजकर। | ||
+ | न था जलद व्योम मधय छाया। | ||
+ | कि बीच ही वायु ने सम्हलकर। | ||
+ | उसे वहीं धूल में मिलाया।55। | ||
+ | |||
+ | परन्तु पल में पुन: उसी थल। | ||
+ | हुए जलद-खण्ड दृष्टिगोचर। | ||
+ | हुआ प्रथम लौं सुपुष्ट दल बल। | ||
+ | शनै: शनै: वर्ध्दमान हो कर।56। | ||
+ | |||
+ | उठी हवा भी उसी तरह फिर। | ||
+ | तुरंत जिससे जलद गया टल। | ||
+ | पयोद आया पुन: पुन: घिर। | ||
+ | पुन: पुन: वायु भी पड़ी चल।57। | ||
+ | |||
+ | रही दशा यह नियत समय तक। | ||
+ | पयोद दलता रहा प्रभंजन। | ||
+ | परन्तु पीछे हुआ अचानक। | ||
+ | सकल-गगन-प्रान्त में प्रबल घन।58। | ||
+ | |||
+ | जहाँ तहाँ इस समय गगन में। | ||
+ | बिपुल जलद-खण्ड थे बिचरते। | ||
+ | घरों, दरों, सैकड़ों सहन में। | ||
+ | कलित कौमुदी मलीन करते।59। | ||
+ | |||
+ | कहीं हुए पर्वताकार घन। | ||
+ | कहीं सदल बल विहर रहे थे। | ||
+ | कहीं गये थे महा निविड़ बन। | ||
+ | कहीं खण्डश: विचर रहे थे।60। | ||
+ | |||
+ | शनै: शनै: हो गयी दशा यह। | ||
+ | लगा कलाधार मलीन होने। | ||
+ | न रह गया था प्रदीप्त नभ वह। | ||
+ | चला तिमिर था प्रकाश खोने।61। | ||
+ | |||
+ | प्रथम गगन के विपुल थलों पर। | ||
+ | परास्त था वायु से हुआ घन। | ||
+ | परन्तु इस काल शान्त बन कर। | ||
+ | स्वयं हुआ था विजित प्रभंजन।62। | ||
+ | |||
+ | प्रचण्डता जिस प्रबल पवन की। | ||
+ | सकल-जलद-जाल छिन्न करती। | ||
+ | न शक्ति उसमें रही शमन की। | ||
+ | भला न क्यों शान्त वह बिचरती।63। | ||
+ | |||
+ | विशद-गगन के अधिक थलों पर। | ||
+ | सजल जलद इस समय जमा था। | ||
+ | वहाँ चमकता न था कलाधार। | ||
+ | न चाँदनी का वहाँ समा था।64। | ||
+ | |||
+ | कभी कभी भेद कर सघन घन। | ||
+ | प्रकाश निज कान्ति था दिखाता। | ||
+ | कभी कभी यामिनी-विमोहन। | ||
+ | झलक जलद-जाल-बीच जाता।65। | ||
+ | |||
+ | परन्तु अब भी विशद गगन के। | ||
+ | बचे हुए थे विभाग ऐसे। | ||
+ | जहाँ छबीले नछत्र-गण के। | ||
+ | प्रकोष्ठ थे दिव्य पूर्व जैसे।66। | ||
+ | |||
+ | सु-चाँदनी वैसी ही यहाँ थी। | ||
+ | प्रकाश था पूर्व लौं मनोहर। | ||
+ | सुधा सरस वैसी ही बनी थी। | ||
+ | प्रदीप्त था पूर्ववत् कलाधार।67। | ||
+ | |||
+ | परन्तु ऐसे विभाग में भी। | ||
+ | धवल जलद-खण्ड फिर रहे थे। | ||
+ | कई निबिड़ वारि-वाह से भी। | ||
+ | विचित्रता साथ घिर रहे थे।68। | ||
+ | |||
+ | तथापि दो एक भाग अब भी। | ||
+ | बचे हुए थे प्रपंच घन से। | ||
+ | नछत्र-गण थे सशंक तब भी। | ||
+ | प्रफुल्लता दूर थी बदन से।69। | ||
+ | |||
+ | कभी किसी भाग का प्रभंजन। | ||
+ | प्रचण्डता पूर्ववत् दिखाता। | ||
+ | परन्तु अति दीर्घ काय दृढ़ घन। | ||
+ | प्रयत्न उसका विफल बनाता।70। | ||
+ | |||
+ | विशेषत: वात अब अबल था। | ||
+ | वरंच था वह घनानुसारी। | ||
+ | अत: जलद-जाल अति प्रबल था। | ||
+ | बना हुआ था अक्लिष्ट कारी।71। | ||
+ | |||
+ | समय हुआ और ही बदल कर। | ||
+ | रही न सद्बुध्दि अब सँघाती। | ||
+ | कला बनाता मलीन जलधार। | ||
+ | कला जलद को कलित बनाती।72। | ||
+ | |||
+ | कवीकपति का विलोप साधान। | ||
+ | जलद तटल का प्रधान व्रत था। | ||
+ | परन्तु घन को गगन-विभूषन। | ||
+ | सँवारने में समोद रत था।73। | ||
+ | |||
+ | विशद-गगन-बीच जो पयोधार। | ||
+ | कभी कहीं भी न था दिखाता। | ||
+ | वही बिबिधा रूप रंग रच कर। | ||
+ | दिगंत में भी न था समाता।74। | ||
+ | |||
+ | सरस सुधा सिक्त शशि समुज्ज्वल। | ||
+ | समीर से सेब्यमान होकर। | ||
+ | शनै: शनै: घेर कर गगन-तल। | ||
+ | हुआ अप्रति-हत-प्रताप जलधार।75। | ||
+ | |||
+ | सकल जलद-जाल की क्रिया यह। | ||
+ | विलोकता आदि से युवा था। | ||
+ | परन्तु इस काल था व्यथित वह। | ||
+ | प्रसन्न आनन मलिन हुआ था।76। |
10:53, 10 मई 2013 के समय का अवतरण
मयंक मृदु मंद हँस रहा था।
असीम नीले अमल गगन में।
सुधा अलौकिक बरस रहा था।
चमक रहा था छत्र-गन में।1।
सुरंजिता हो रही धारा थी।
खिली हुई चारु चाँदनी से।
रजत-मयी हो गयी बिभा थी।
कला कुमुदिनी-विकासिनी से।2।
दसों दिशा दिव्य हो गयी थीं।
सुदुग्धा का सोत बह रहा था।
नभपगा भी प्रभा-मयी थी।
प्रवाह पारद उमड़ रहा था।3।
चमक रहे थे असंख्य तारे।
सुदीप्ति सब ओर ढल रही थी।
विमुग्धा-कर ज्योति-पुंज धारे।
अपार आभा उथल रही थी।4।
सुअर्बली शैल के शिखर पर।
असंख्य हीरे ढलक रहे थे।
प्रकाश-मण्डित मयंक के कर।
अपार छबि से छलक रहे थे।5।
सुदूर विस्तृत विशाल गिरिवर।
सुज्योति संचित जगा रहा था।
अपूर्व कल-कान्ति-युक्त कलेवर।
रजत जटित जगमगा रहा था।6।
विचित्र तरु-पत्र की छटा थी।
प्रदीप्ति से दीप्तिमान होकर।
विराजती स्वच्छ शुभ्रता थी।
हरीतिमा का विकास खोकर।7।
प्रकाश के हैं कढ़े फुआरे।
प्रदीप्त भूतल विदार करके।
कि हैं प्रभा से गये सँवारे।
समस्त पादप प्रदेश भर के।8।
सुज्योति-सम्पन्न थीं लताएँ।
किरण-मयी बेलियाँ हुई थीं।
हरी भरी श्याम दूर्वाएँ।
प्रकाश से शुभ्र हो गयी थीं।9।
समस्त गिरि-शृंग का हिमोपल।
विचित्रता से दमक रहा था।
हरेक तृण था हुआ समुज्ज्वल।
समस्त रजकण चमक रहा था।10।
सरित-सरोवर समूह का जल।
बना हुआ दिव्य, था झलकता।
सुवीचियों-बीच स्वच्छ उज्ज्वल।
प्रकाश का बिम्ब था ढलकता।11।
हरी भरी भूमि का सरोवर।
सुभव्य था चारुता बड़ी थी।
रजत बनाई विशाल चादर।
सुशष्प के मधय में पड़ी थी।12।
अनेक छोटे बड़े जलाशय।
जहाँ तहाँ थे अजब दमकते।
प्रदीप्त नभ में नछत्र कतिपय।
सतेज हैं जिस तरह चमकते।13।
अनेक सितकर प्रदीप्त निर्झर।
असंख्य मोती उछालते थे।
निसार करके कवीक पति पर।
उमंग अपनी निकालते थे।14।
तमोमयी शैल कन्दराएँ।
महा तिमिर-वान झाड़ियाँ सब।
कहो न क्यों आज जगमगाएँ।
स्वयं तम है प्रभा-मयी जब।15।
बना हुआ था विशाल जंगल।
प्रकाश के पुंज का अखाड़ा।
मयंक-कर ने जहाँ सदल बल।
प्रचंड तम-तोम को पछाड़ा।16।
प्रसून पर काश के विभावस।
विचित्र है चारुता दिखाती।
अमल धवल केश राशि पावस।
रची गयी ज्योति की जनाती।17।
विविध बगीचे अनेक उपवन।
विकास से हैं महा विकसित।
कि मेदिनी पर कला-निकेतन।
अनन्त तजकर हुआ प्रकाशित।18।
न एक सित पुष्प ही मनोहर।
ससाम्य-बश ओप में बढ़ा था।
हरे असित नील पुष्प-चय पर।
प्रकाश का रंग ही चढ़ा था।19।
समस्त क्यारी कलित हुई थी।
प्रभा बलित थी अखिल प्रणाली।
सुधा सरस कुंज में चुई थी।
दमक रही थी मलीन डाली।20।
कटी छँटी बेलि बूटियों पर।
छँटी हुई ज्योति टिक रही थी।
हरी भरी बाँस खूँटियों पर।
किरण अछूती छिटक रही थी।21।
खिले हुए फूल पर न केवल।
कमाल थी कौमुदी दिखाती।
मुँदे हुए थे अनेक उत्पल।
जिन्हें कला थी मुकुट पिन्हाती।22।
समस्त समतल विशाल प्रान्तर।
प्रकाशमय थे बिछी रुई थी।
सु अंकुरित खेत खेत होकर।
प्रभा परम पल्लवित हुई थी।23।
प्रवेश करके विशद नगर में।
प्रकाश तमराशि खो रहा था।
डगर डगर औ बगर बगर में।
जगर मगर आज हो रहा था।24।
प्रशस्त प्रकार मन्दिरों में।
फटिक शिला शुभ्र लग गयी थी।
समग्र आँगन घरों दरों में।
नवल धवल ज्योति जग गयी थी।25।
अटारियाँ खिड़कियाँ मनोहर।
प्रकाश की कोठियाँ बनी थीं।
सुभग मुँडेरों सु कँगनियों पर।
लगी हुई बज्र की कनी थी।26।
हुए छतों पर विचित्र टोने।
समस्त छाजन ज्वलित हुई थी।
कला फिरी थी हरेक कोने।
झलक रही भूमि की सुई थी।27।
सकल गली ओ समस्त कूँचे।
चमक दमक चारु थे दिखाते।
चऊतरे चौखटे समूचे।
अजीब थे आज जगमगाते।28।
बना हुआ ठाट हाट का था।
रजतमयी सब दुकान ही थी।
सुचमकियों से बसन टँका था।
मिठाइयों पर सुधा बही थी।29।
भया प्रभावान भव्य भाजन।
हुआ विभूषण सुरत्न-मण्डित।
कलाबतू बदला बना सन।
अखिल उपस्कर हुए अलंकृत।30।
गिलम गलीचे मलिन दरी भी।
चमक दमक चारुता-मयी थी।
पड़ी सड़क में कुकंकरी भी।
प्रभावती पोत बन गयी थी।31।
सुधा धावल धाम ही न केवल।
हुआ प्रभा-पुंज से सुशोभन।
बुरा निकेतन महा मलिन थल।
सुदर्पणों सा बना सुदर्शन।32।
रचा हुआ घास का कुघर भी।
प्रदीप्त था, ज्योति भर रही थी।
पड़ी झोंपड़ी समस्त पर भी।
कला करामात कर रही थी।33।
कलित किरण थी प्रदीप्ति-बोरी।
प्रकाश में तेज सन गया था।
जकी चकी थी खड़ी चकोरी।
कवीकपित भानु बन गया था।34।
सुचाँदनी की चटक निकाई।
पयोधि का कान काटती थी।
जिसे बड़े चाव से बिलाई।
बिचार कर दूध चाटती थी।35।
निशा हुई थी महा समुज्ज्वल।
समस्त नभ श्वेत था दिखाता।
कभी अचानक बिहंग का दल।
प्रभात का राग था सुनाता।36।
दिगन्त में भूमि तल गगन पर।
त्रिलोक की स्वेतता बसी है।
वितुल कलितर्-कीत्ति-रूप धारकर।
स्वयंभु की या प्रकट लसी है।37।
महा सिताभा असीम नभ-तल।
प्रदीप्त करके हुई सुप्लावित।
निमग्न करके समग्र भूतल।
कि है पयोराशि पय प्रवाहित।38।
अमल सतोगुण विशुध्द उज्ज्वल।
स्वरूप धार कर प्रकट दिखाया।
विभा बलित सित सरोज दल या।
बसुंधरा पर गया बिछाया।39।
कलितकला जिस रुचिर नगरपर।
सुकान्ति का है प्रसार करती।
उसी नगर में महा मनोहर।
बिभावती एक है सुधारती।40।
रचे गुणी जन इसी धरा पर।
अनेक प्रसाद हैं चमकते।
सदैव जिनके कलश रुचिर तर।
दिनेश की भाँति हैं दमकते।41।
इन्हीं सुप्रसाद-पंक्ति-भीतर।
अपूर्व है एक हर्म्य शोभित।
विचित्र जिसकी बनावटों पर।
न दृष्टि किसकी हुई प्रलोभित।42।
इसी विशद हर्म्य में मनोहर।
प्रकोष्ठ है एक अति सुसज्जित।
जिसे कलाधर कला निराली।
थी कर रही सुरंजित।43।
शनै:-शनै: एक जन उसी पर।
प्रशान्त-गति से टहल रहा था।
प्रफुल्ल मुख कान्ति-मान होकर।
प्रसाद की ओर ढल रहा था।44।
विशाल-भुज-वक्ष यह युवा जन।
मयंक की माधुरी मनोहर।
विलोक कर था महा मुदित मन।
अपूर्व-उच्छ्वास-पूर्ण-अन्तर।45।
प्रकोष्ठ की कारु-कार्य-वाली।
खुली रुचिर सित-शिला-रची छत।
सकल-उपस्कर-सुरत्न-शाली।
सुबर्न-चूड़ा परम समुन्नत।46।
मयंक कर से चमक दमक कर।
मनोज्ञतर दृष्टि थे दिखाते।
जिन्हें युवा एक दृष्टि लख कर।
प्रमोद-पय-राशि पैर जाते।47।
जड़े हुए दिव्य रत्न सुन्दर।
निकालते ज्योति थे निराली।
बना युवा मन्त्र-मुग्ध लख कर।
हुई हृदय देश में दिवाली।48।
शिखर समुज्ज्वल,प्रदीप्त प्रान्तर।
अनेक पादप प्रकाश-मंडित।
सुकर-समाच्छन्न बहु सरोवर।
बिपुल बगीचे विभा-अलंकृत।49।
प्रकोष्ठ से दृष्टि पर पड़ रहे थे।
समस्त का कुछ अजब समा था।
युवा हृदय मधय गड़ रहे थे।
सुदृश्य प्रति रोम में रमा था।50।
कभी युवा देखता गगन-तल।
कभी धरातल विमुग्ध होकर।
कभी धावल धाम हर्म्य उज्ज्वल।
कभी समुद्दीप्त,शुभ्र परिसर।51।
पवन सुधा-सिक्त मन्द-गामी।
सकल कला-पूर्ण कल कलाधार।
सुचंद्रिका चारु-कीत्ति-कामी।
दिशा महा मंजु अति मनोहर।52।
युवा उन्हीं में रमा हुआ था।
शरीर की सुधि नहीं रही थी।
प्रमोद-पंकज खिला हुआ था।
विनोद की वेलि लहलही थी।53।
प्रतीच्य आकाश में इसी छन।
हुआ प्रकट एक दाग काला।
शनै: शनै: वह बना क्षुद्र घन।
पुन: हुआ मंजु मेघमाला।54।
अभी क्षितिज क्षुद्रभाग तजकर।
न था जलद व्योम मधय छाया।
कि बीच ही वायु ने सम्हलकर।
उसे वहीं धूल में मिलाया।55।
परन्तु पल में पुन: उसी थल।
हुए जलद-खण्ड दृष्टिगोचर।
हुआ प्रथम लौं सुपुष्ट दल बल।
शनै: शनै: वर्ध्दमान हो कर।56।
उठी हवा भी उसी तरह फिर।
तुरंत जिससे जलद गया टल।
पयोद आया पुन: पुन: घिर।
पुन: पुन: वायु भी पड़ी चल।57।
रही दशा यह नियत समय तक।
पयोद दलता रहा प्रभंजन।
परन्तु पीछे हुआ अचानक।
सकल-गगन-प्रान्त में प्रबल घन।58।
जहाँ तहाँ इस समय गगन में।
बिपुल जलद-खण्ड थे बिचरते।
घरों, दरों, सैकड़ों सहन में।
कलित कौमुदी मलीन करते।59।
कहीं हुए पर्वताकार घन।
कहीं सदल बल विहर रहे थे।
कहीं गये थे महा निविड़ बन।
कहीं खण्डश: विचर रहे थे।60।
शनै: शनै: हो गयी दशा यह।
लगा कलाधार मलीन होने।
न रह गया था प्रदीप्त नभ वह।
चला तिमिर था प्रकाश खोने।61।
प्रथम गगन के विपुल थलों पर।
परास्त था वायु से हुआ घन।
परन्तु इस काल शान्त बन कर।
स्वयं हुआ था विजित प्रभंजन।62।
प्रचण्डता जिस प्रबल पवन की।
सकल-जलद-जाल छिन्न करती।
न शक्ति उसमें रही शमन की।
भला न क्यों शान्त वह बिचरती।63।
विशद-गगन के अधिक थलों पर।
सजल जलद इस समय जमा था।
वहाँ चमकता न था कलाधार।
न चाँदनी का वहाँ समा था।64।
कभी कभी भेद कर सघन घन।
प्रकाश निज कान्ति था दिखाता।
कभी कभी यामिनी-विमोहन।
झलक जलद-जाल-बीच जाता।65।
परन्तु अब भी विशद गगन के।
बचे हुए थे विभाग ऐसे।
जहाँ छबीले नछत्र-गण के।
प्रकोष्ठ थे दिव्य पूर्व जैसे।66।
सु-चाँदनी वैसी ही यहाँ थी।
प्रकाश था पूर्व लौं मनोहर।
सुधा सरस वैसी ही बनी थी।
प्रदीप्त था पूर्ववत् कलाधार।67।
परन्तु ऐसे विभाग में भी।
धवल जलद-खण्ड फिर रहे थे।
कई निबिड़ वारि-वाह से भी।
विचित्रता साथ घिर रहे थे।68।
तथापि दो एक भाग अब भी।
बचे हुए थे प्रपंच घन से।
नछत्र-गण थे सशंक तब भी।
प्रफुल्लता दूर थी बदन से।69।
कभी किसी भाग का प्रभंजन।
प्रचण्डता पूर्ववत् दिखाता।
परन्तु अति दीर्घ काय दृढ़ घन।
प्रयत्न उसका विफल बनाता।70।
विशेषत: वात अब अबल था।
वरंच था वह घनानुसारी।
अत: जलद-जाल अति प्रबल था।
बना हुआ था अक्लिष्ट कारी।71।
समय हुआ और ही बदल कर।
रही न सद्बुध्दि अब सँघाती।
कला बनाता मलीन जलधार।
कला जलद को कलित बनाती।72।
कवीकपति का विलोप साधान।
जलद तटल का प्रधान व्रत था।
परन्तु घन को गगन-विभूषन।
सँवारने में समोद रत था।73।
विशद-गगन-बीच जो पयोधार।
कभी कहीं भी न था दिखाता।
वही बिबिधा रूप रंग रच कर।
दिगंत में भी न था समाता।74।
सरस सुधा सिक्त शशि समुज्ज्वल।
समीर से सेब्यमान होकर।
शनै: शनै: घेर कर गगन-तल।
हुआ अप्रति-हत-प्रताप जलधार।75।
सकल जलद-जाल की क्रिया यह।
विलोकता आदि से युवा था।
परन्तु इस काल था व्यथित वह।
प्रसन्न आनन मलिन हुआ था।76।