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"ट्राम में एक याद / ज्ञानेन्द्रपति" के अवतरणों में अंतर

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नाटक में अब भी लेती हो भाग ?
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तुम्हारी याद उमड़ी है<br><br>
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अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र ?
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अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र ?
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उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है
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भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग ?<br>
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ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
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विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर ?<br>
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इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह खाली है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है<br>
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एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है<br>
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महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है<br><br>
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विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कंठ कम है
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तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
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इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह खाली है<br>
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फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है<br>
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आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है<br>
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रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कंठ कम है<br>
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रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है<br>
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देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है<br><br>
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देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है
  
फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ<br>
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चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ?
आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ<br>
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बोलो, बोलो, पहले जैसी हो ?
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग<br>
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रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग<br>
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देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है<br>
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देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है<br><br>
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10:56, 15 अप्रैल 2011 का अवतरण

चेतना पारीक कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
कुछ-कुछ खुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ?
अब भी कविता लिखती हो ?

तुम्हे मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कद-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक<
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है

चेतना पारीक, कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग ?
नाटक में अब भी लेती हो भाग ?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर ?
मुझ-से घुमंतू कवि से होती है टक्कर ?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र ?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र ?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो ?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो ?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो ?
उतनी ही हरी हो ?

उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है

इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह खाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है

फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है

चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो ?