|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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तप रे, मधुर मन!
विश्व-वेदना में तप प्रतिपल, जग-जीवन की ज्वाला में गल, बन अकलुष, उज्जवल औ\' कोमल तप रे, मधुर विधुर-विधुर मन!<br><br>
विश्वअपने सजल-वेदना में तप प्रतिपल,<br>स्वर्ण से पावन जग-रच जीवन की ज्वाला में गल,<br>पूर्ति पूर्णतम बन अकलुषस्थापित कर जग अपनापन, उज्जवल औ\' कोमल<br>तप ढल रे, विधुर-विधुर ढल आतुर मन!<br><br>
अपने सजल-स्वर्ण से पावन<br>रच जीवन की पूर्ति पूर्णतम<br>स्थापित कर जग अपनापन,<br>ढल रे, ढल आतुर मन!<br><br> तेरी मधुर मुक्ति ही बन्धन,<br>गंध-हीन तू गंध-युक्त बन,<br>निज अरूप में भर स्वरूप, मन<br>मूर्तिमान बन निर्धन!<br>गल रे, गल निष्ठुर मन! <br><br/poem>