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"अब तक तो / अहमद नदीम क़ासमी" के अवतरणों में अंतर

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मैं तुझे छू सकूं तो ख़ुदा जाने क्या कहूँ|<br><br>
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अब जुस्तजू है तेरी जफ़ा के जवाज़ की,
वो गुल कहें जिसे मैं तेरा नक्ष-ए-पा कहूँ|<br><br>
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जी चाहता है तुझ को वफ़ा आशना कहूँ|<br><br>
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मैं तेरे हुस्न को भी सबूत-ए-वफ़ा कहूँ|<br><br>
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वो है ख़ुदा तो मेरे ख़ुदा तुझ को क्या कहूँ|<br><br>
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मैं जो कुछ कहूं यकीं से कहूं बर्मला कहूँ|
  
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हर इंतिहां को एक नयी इब्तिदा कहूँ|
  
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हो क्यूँ न मुझ को अपने मज़ाक़-ए-सुख़न पे नाज़,
हर न्तहा को एक नयी इब्तिदा कहूँ|<br><br>
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20:19, 25 फ़रवरी 2009 का अवतरण

अब तक तो नूर-ओ-निख़त-ओ-रंग-ओ-सदा कहूँ,
मैं तुझे छू सकूं तो ख़ुदा जाने क्या कहूँ|

लफ्ज़ों से उन को प्यार है मफ्हूम से मुझे,
वो गुल कहें जिसे मैं तेरा नक्ष-ए-पा कहूँ|

अब जुस्तजू है तेरी जफ़ा के जवाज़ की,
जी चाहता है तुझ को वफ़ा आशना कहूँ|

सिर्फ़ इस के लिये कि इश्क़ इसी का ज़हूर है,
मैं तेरे हुस्न को भी सबूत-ए-वफ़ा कहूँ|

तू चल दिया तो कितने हक़ाइक़ बदल गये,
नज्म-ए-सहर को मरक़द-ए-शब का दिया कहूँ|

क्या जब्र है कि बुत को भी कहना पड़े ख़ुदा,
वो है ख़ुदा तो मेरे ख़ुदा तुझ को क्या कहूँ|

जब मेरे मुहं में मेरी ज़ुबां है तो क्यूं न,
मैं जो कुछ कहूं यकीं से कहूं बर्मला कहूँ|

क्या जाने किस सफ़र पे रवां हूँ अज़ल से मैं,
हर इंतिहां को एक नयी इब्तिदा कहूँ|

हो क्यूँ न मुझ को अपने मज़ाक़-ए-सुख़न पे नाज़,
ग़ालिब को कायनात-ए-सुख़न का ख़ुदा कहूँ |