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सरस्वती पुत्र / अज्ञेय

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|संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय
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<poem>
मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त,
खुले गले से
मुखर स्वरों में
अति-प्रगल्भ
गाते जाते थे राम-नाम।
भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, जल्पक,
निर्बोध, अयाने, नाटे,
पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले।
मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त,<br>खुले गले से <br>मुखर स्वरों में<br>अति-प्रगल्भ<br>गाते जाते थे राम-नाम।<br>भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, जल्पक,<br>निर्बोध, अयाने, नाटे,<br>पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले।<br><br> बाहर वह <br> खोया-पाया, मैला-उजला <br> दिन-दिन होता जाता वयस्क, <br> दिन-दिन धुँधलाती आँखों से <br> सुस्पष्ट देखता जाता था;<br>पहचान रहा था रूप,<br>पा रहा वाणी और बूझता शब्द,<br>पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था:<br>दिन-दिन पर उसकी घिग्घी बँधती जाती थी। <br><br/poem>
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